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जीवन एक कल्पवृक्ष
अमरकुमार में यदि पराक्रम का तेज था, तो सुरसुंदरी नम्रता की शीतलता थी। अमरकुमार यदि पौरूषत्व का पुंज था, तो सुरसुंदरी समर्पण की मूर्ति थी। अमरकुमार यदि मूसलाधार बारिश था, तो सुरसुंदरी शुभ फलदा धरित्री थी।
हवेली के दरवाज़े पर बजनेवाली शहनाई के सुर जब मद्धिम हुए... तो हवेली के उस भव्य कक्ष में भीतरी स्नेह की शहनाई के सुर छलकने लगे। वहाँ मात्र दैहिक आकर्षण नहीं था, पर एक दूजे के गुणों का खिंचाव था। वहाँ केवल व्यक्तित्व की वासना नहीं थी, वरन् अस्तित्व की उपासना थी। फिर भी संकोच था, झिझक थी, मौन था, खामोशी थी, आखिर अमर ने खामोशी के परदे को उठाते हुए कहा : 'सुंदरी! सुंदरी ने अमर के सामने देखा। 'तेरी श्रद्धा फलीभूत हुई न?' 'नहीं, अपनी श्रद्धा फलवती बनी।' 'इच्छा, तो थी, मुझे आशा न थी।' 'कोई गतजन्म का पुण्य उदय में आ गया।' 'एकदम प्रसन्न हो न?' 'हाँ, पर...' 'पर क्या? सुंदरी?' 'यह प्रसन्नता यदि अखंड रहे तो,' 'अखंड ही रहेगी तेरी प्रसन्नता । निश्चित रह ।' 'आपके सानिध्य में तो मैं निश्चित ही हूँ, स्वामिन् ।' 'तेरे पास तो श्रद्धा का बल है, ज्ञान का प्रकाश है, शील की रखवाली है, तेरे चरणों में तो देवलोक के देव भी झुकते हैं।' 'ऐसा मत कहिए, मेरे मन में तो आप ही मेरे सर्वस्व हो।'
नवजीवन का यह पहला स्नेहालाप था। उस स्नेहालाप में भी श्रद्धा, ज्ञान और समर्पण का अमृत घुला हुआ था।
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