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कितनी खुशी, कितना हर्ष!
'ओह, तुने भी मेरे मन की बात जान ली न आखिर?'
'पर... चाहे पर्याय का तादात्म्य टूट जाए, पर आत्मद्रव्य का तादात्म्य तो रहेगा ही न?'
'यानी क्या, आज हमें 'द्रव्य-पर्याय' की चर्चा करनी है!' 'नहीं... चर्चा नहीं करनी है... हृदय के भावों की अभिव्यक्ति करनी है। स्नेह एवं समर्पण के अतल समुद्र में गोते लगाने हैं।'
दो दिलों में भावनाओं का ज्वार उफन रहा था। मन की तरंगों के आगे लहरें क्या अर्थ रखती हैं? फिर भी यह तूफानी सागर की तरंगे नहीं थीं... उफनता सागर भी अंकुश में था। उसे देश और काल का ख्याल था। सुरसुंदरी ने कहा :
'देखो... पूरब में सूरज कितना ऊपर निकल आया है... मुझे लगता है... दो घड़ी हो चूकी होगी, सुरज को उगे हुए | चलो, अब मै माँ के पास पहुँच जाऊँ।
सुरसुंदरी खड़ी हो गयी... अमरकुमार खड़ा हुआ।
दोनों को केवल चार प्रहर के लिए अलग होना था... मात्र चार प्रहर । फिर भी जैसे चार युगों की जुदाई हो, वैसी व्यथा अमरकुमार के चेहरे पर तैर आयी। सुरसुंदरी ने अपनी व्यथा अभिव्यक्त न होने दी।
आखिर वह स्त्री थी न! व्यथा... वेदना को भीतर में छुपाकर-दबाकर बाहर से खुशी-प्रसन्नता बनाये रखना उसे आता था। वह दंभ नहीं था... दिखावा नहीं था... वह ज़िंदगी जीने की कला थी। स्त्री को यह कला अवगत हो तो वह कभी भी अपने घर को श्मशान नहीं बनने देगी! चाहे उसके भीतर के श्मशान में भावनाओं की चिता सुलग रही हो, पर एक दूजे पर तो प्यार... करूणा... वात्सल्य का नीर ही सींचना होगा।
अमरकुमार के प्रति प्यार भरी निगाहें छिटकती हुई सुरसुंदरी धनवती के पास जा पहुँची। धनवती के चरणों की वंदना की... धनवती ने सुंदरी को अपनी गोद में खींच लिया। ___ सुरसुंदरी को धनवती में रतिसुंदरी की प्रतिकृति दिखायी दी। धनवती के दिल में लहराते स्नेहसागर में वह अपने आपको डुबोने लगी। उसकी आँखों
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