________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५४
कितनी खुशी, कितना हर्ष! वह बाहर आयी। माँ के पास पहुँची। माँ! मुझे सोने के थाल में उत्तम फल रखकर दे..., अच्छी मिठाई रखकर दे..., मैं परमात्मा के मंदिर में जाऊँगी।'
'लौटते वक्त बेटी, गुरूदेव के उपाश्रय में भी जाना | गुरूदेव को वंदना कर आना।' 'और वहाँ से साध्वीजी सुव्रताजी के उपाश्रय में जाकर लौटूंगी।'
रतिसुंदरी ने थाल तैयार किया । दासी को साथ में जाने की आज्ञा की। सुरसुंदरी थाल लेकर दासी के साथ रथ में बैठकर जिनमंदिर पहुंची।
वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के दर्शन करते-करते वह गद्गद् हो उठी। उसका रोयाँ- रोयाँ पुलकित हो उठा। उसकी पलकों पर हर्ष के आँसू मोती की भाँति दमकने लगे। उसने मधुर-स्वर से स्तवना की। परमात्मा के समक्ष फल और नैवेद्य समर्पित किये। __ हृदय में श्रद्धा एवं भक्ति का अमृत भर के सुरसुंदरी गुरूदेव के उपाश्रय में पहुँची। उसने विधिपूर्वक वदंना की। गुरूदेव ने धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया। सुरसुंदरी नतमस्तक होकर खड़ी रही। गुरूदेव बोले : 'मुझे समाचार मिल गये हैं, वत्से! जिनशासन को तुम दोनों ने पाया है... समझा है, परखा है, इस तरह जीना कि जिससे स्व-पर का कल्याण हो... और जिनशासन की अपूर्व प्रभावना हो। तू सुज्ञ है... ज्यादा तो तुझसे क्या कहूँ? संसार-दावानल की ज्वालाएँ तुझे जलायें नहीं... इसके लिए अनित्य, अशरण, एकत्व और अन्यत्व इन चारों भावनाओं से अनुप्राणित बनना। शील का कवच सदा पहने रखना। श्री नवकार मंत्र का गुंजन हमेशा दिल में रखना।'
सुरसुंदरी की आँखो से आँसू टपकने लगे, भाव-विभोर होकर उसने पुनः पंचांग प्रणिपात किया । उत्तरीय वस्त्र के छोर से आँखें पोछकर वह बोली :
'गुरूदेव, आपकी इस प्रेरणा को मैं अपने दिल के भीतर सुरक्षित रखूगी। मेरी आपसे एक विनती है : परोक्ष रूप से भी आपके आशीर्वाद मुझे मिलते रहें... वैसी कृपा करें!'
सुरसुंदरी वहाँ से निकलकर साध्वीजी के उपाश्रय में पहुँची। साध्वीजी की वंदना करके उनके चरणों में अपना सर रख दिया। साध्वीजी ने उसके सिर पर अपना पवित्र हाथ रखा और आशीर्वाद दिये।
'सुंदरी, अभी कुछ देर पहले ही सेठानी धनवती यहाँ आयी थी। तेरी जैसी पुत्रवधू पाने का उनका आनंद असीम है...! पितृगृह को अपने गुण और
For Private And Personal Use Only