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मन की मुराद
५१ 'आज्ञा करें राजन्, सेवक को क्यों याद किया।'
'मुझे एक बात करनी है तुमसे... यदि तुम्हें अच्छी लगे तो मेरी बात को स्वीकार करना।'
'महाराजा, आप तो हमारे मालिक हैं... सर्वस्व हैं... प्रजावत्सल हैं... आप जो भी कहेंगे वह मेरे हित के लिए ही होगा... इसकी मुझे श्रद्धा है... विश्वास है। आप आज्ञा प्रदान करें।'
'मैं आज्ञा नहीं बल्कि एक याचना कर रहा हूँ।' 'आप मुझे शर्मिदा मत करें। इस तुच्छ सेवक के पास आपको याचना करनी होती है क्या? आपको आज्ञा करनी है।'
'धनावह सेठ, मैं अपनी बेटी सुरसुंदरी के लिए तुम्हारे सुपुत्र अमरकुमार की मँगनी करता हूँ... अमरकुमार को मैंने कल राजसभा में देखा है... परखा है, सुरसुंदरी के लिए वह सुयोग्य वर है... कहो तुम्हें मेरा प्रस्ताव कैसा लगा? मैंने तुम्हें इसीलिए यहाँ बुलवाया है... अभी।'
'ओ मेरे मालिक! आपके मुँह में घी-शक्कर! आपके इस प्रस्ताव पर मुझे ज़रा भी सोचना नहीं है... आपका प्रस्ताव मैं सहर्ष स्वीकार कर लेता हूँ... सुरसुंदरी मेरी पुत्रवधू बनकर मेरी हवेली में आएगी। मेरी हवेली को उजागर करेगी। कल मैंने भी राजसभा में सुरसुंदरी को देखा है... रूप-गुण-कला और विनय, विवेक उसका श्रृंगार है।' ___ 'सेठ, तुमने मेरी बात स्वीकार की... मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम यहाँ बैठो, मैं सुरसुंदरी की माँ को यह शुभ समाचार दे आऊँ। वह यह समाचार सुनकर हर्ष-विभोर हो उठेगी।' ___ महाराजा त्वरा से रतिसुंदरी के कक्ष में पहुँचे और प्रसन्न मन से... प्रसन्न मुख से बोले : ___ 'देवी, धनावह सेठ ने मेरी बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया है! मैंने वचन दे दिया है। अमरकुमार अब अपना दामाद बनता है।'
'बहुत उत्तम कार्य हो गया... स्वामिन्! सभी चिन्ताएँ दूर हो गयी... मुझे तो जैसे स्वर्ग का सुख मिला!' ___ 'तो मैं जा रहा हूँ... सेठ बैठे हैं... यह तो मैं तुम्हें शुभ समाचार सुनाने के इरादे से दौड़ आया था।'
‘पधारिए, आप... मैं भी सुरसुंदरी को समाचार सुना दूं।'
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