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मन की मुराद
५० सुरसुंदरी तो निद्रा की गोद में सो चुकी थी। अमरकुमार के लिए यह बात, कल्पना में आना भी सम्भव नहीं था।
श्रेष्ठी धनावह और सेठानी धनवती तो सपना भी नहीं देख सकते थे कि सुरसुंदरी उनके घर में पुत्रवधू बनकर आ सकती है। ___ जब पुण्यकर्म का उदय होता है, तब अकल्पित-सुख मनुष्य को आ मिलता है। जब पाप-कर्म उदय में आते हैं, तब अकल्पित-दुःख आता है मनुष्य के सिर पर |
दूसरे दिन सुबह जब श्रेष्ठी धनावह प्राभातिक कार्यों से निपट कर उपाश्रय में धर्म-प्रवचन सुनने के लिए जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि हवेली के प्रांगण में रथ आकर खड़ा हो गया। रथ में से महामंत्री उतरे और हवेली की सोपान-पंक्तियाँ चढ़ने लगे।
श्रेष्ठी महामंत्री का स्वागत करने के लिए सामने दौड़े। महामंत्री का हाथ पकड़कर मंत्रणा-गृह में ले आये। महामंत्री का उचित स्वागत करके पूछा :
'आज क्या बात है? इस झोंपड़ी को पावन किया? मेरे योग्य सेवाकार्य हो तो फ़रमाइए।'
श्रेष्ठी धनावह ने अपनी सहज मीठी ज़बान में बात की। 'धनावह सेठ! मैं आपको लेने आया हूँ... महाराजा ने भेजा है मुझे । आपको लिवा लाने के लिए... आप कृपा करके रथ में बैठे |
धनावह सेठ सोच में डूबे | महामंत्री ने कहा : 'चिंता मत करें... सेठ... यहाँ आने को निकला तब शकुन शुभ हुए हैं।' सेठ का हाथ पकड़कर महामंत्री मंत्रणा-गृह के बाहर आये। सेठ ने अमरकुमार से कहा : 'वत्स, मैं राजमहल में जा रहा हूँ... महाराजा ने मुझे याद फ़रमाया है।' ___ महामंत्री के साथ सेठ रथ में बैठ गये। रथ राजमहल की ओर दौड़ने लगा। दौड़ते हुए रथ को अमरकुमार देखता ही रहा। ___ उसे कहाँ पता था कि उस रथ के दौड़ने के साथ-साथ उसकी क़िस्मत भी दौड़ रही है। उसकी मनोकामना को साकार करने के लिए उसका नसीब सेठ को राजमहल की ओर लिये जा रहा है!
श्रेष्ठी धनावह को लेकर महामंत्री राजमहल में पहुँचे। रथ से उतरकर दोनों महानुभाव महाराजा के मंत्रणा-गृह में प्रविष्ट हुए। ___ 'पधारिए, श्रेष्ठिवर्य!' महाराजा ने खुद खड़े होकर धनावह सेठ का स्वागत किया और आग्रह कर के अपने पास ही बिठाया। महामंत्री महाराजा की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये।
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