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पहेलियाँ
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महाराजा रिपुमर्दन का शयन-कक्ष रत्नदीपकों से झिलमिला रहा था। शयनगृह सुंदर था... सुशोभित था । रात का पहला प्रहर चल रहा था।
महाराजा रिपुमर्दन सोने के, रत्नजड़ित पलंग पर लेटे हुए थे। महारानी रतिसुंदरी पास ही के भद्रासन पर बैठी हुई थी। दोनों के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ अंकित थी। लग रहा था कि हवा के साथ-साथ दीये की हिलतीडुलती लौ, राजा-रानी के चंचल चित्त की मानो चुगली कर रही है।
एक लाड़ली बेटी सुरसुंदरी के भावी सुख का विचार दोनों माता-पिता कर रहे थे। पुत्री पर दोनों को अगाध प्यार था। इसलिए पुत्री दुःखी न हो... इसकी चिंता सभी माता-पिता को होती ही है! रिपुमर्दन ने आस-पास के नगरों में - राज्यों में और दूर-दूर तक के प्रदेशों में अपने निपुण दूत भेजे थे, सुरसुंदरी के लिए सुयोग्य राजकुमार की तलाश के लिए। दूत राजकुमारों के चित्र एवं उनके परिचय लेकर वापस लोटे थे। राजा के सामने उन्होंने वह सब प्रस्तुत किया था... पर राजा को एक भी राजकुमार पसंद नहीं आ रहा था, सुरसुंदरी के भावी पति के रूप में।
कोई राजकुमार खूबसूरत था, तो गुणवान नहीं था! यदि कोई गुणवान था, तो सुंदरता से रहित था! कोई रूप-गुण से युक्त था, पर पराक्रमी नहीं था! यदि कोई पराक्रमी था, तो जिनधर्म का अनुयायी नहीं था! कोई जिनधर्म में आस्थावान था, तो सौंन्दर्य नहीं था उसमें! यदि कोई धर्मात्मा था, तो कुल की दृष्टि से ऊँचा नहीं था!
राजा तो अपनी लाड़ली बेटी के लिए ऐसा दूल्हा खोजना चाहता था, जो कि रूप-गुण-पराक्रम-कुल और धर्म से युक्त हो । जो-जो विशेषताएँ सुरसुंदरी में थी, वे सब विशेषताएँ जिसमें हो, ऐसा राजकुमार उन्हें चाहिए था। चूंकि राजा मानता था कि पति और पत्नी में रूप-गुण की समानता के साथ-साथ धर्म, शील और स्वभाव की समानता भी होना ज़रूरी है, तब ही उनका घर
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