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मन की मुराद गृहस्थी सुखी हो सकती है। उनका धर्म-पुरुषार्थ निर्विघ्न होता है और जीवनयात्रा निरापद बनी रहती है।
रिपुमर्दन और रानी रतिसुंदरी में ये सारी विशेषताएँ समान रूप से थी, इसलिए उनका गार्हस्थ्य जीवन निरापद था। उनका धर्म-पुरुषार्थ निर्विघ्न था और सुरसुंदरी के आंतर-बाह्य व्यक्तित्व का विकास भी वे उच्चस्तरीय कर सके थे। ___ आज ये दंपति चिंतामग्न बने हुए थे। अब वे सुरसुंदरी की शादी में विलंब नहीं करना चाहते थे। सुरसुंदरी की उम्र तो शादी के लिए योग्य थी ही... पर उसकी जवानी उसकी उम्र से भी ज्यादा मुखरित हो उठी थी। ऐसी युवावस्था में प्रविष्ट पुत्री पितृगृह में ही रहे, यह उचित नहीं है -यह बात राजा-रानी भली-भाँति जानते थे। पर श्वसुरगृह मिलना भी चाहिए न? ___ 'स्वामिन्, आप चाहते हैं, वैसी सभी योग्यतावाला वर न मिलता हो, फिर एकाध बात कम हो... पर अन्य योग्यताएँ हों, वैसा कुमार पसंद करें तो?' ___ 'तो सुंदरी दुःखी होगी! किस योग्यता की कमी को स्वीकार लेना, यही मेरी समझ में नहीं आता!, 'पर आखिर सुख-दुःख का आधार तो जीवात्मा के अपने ही शुभाशुभ कर्म पर निर्भर है न?'
'तुम्हारी बात सही है देवी, फिर भी बेटी को उसके प्रारब्ध के भरोसे छोड़ा तो नहीं जा सकता न? हमसे हो सके, उतने प्रयत्न तो करने ही चाहिए न?'
'पर, ऐसा वर यदि मिलता ही न हो तो?' रतिसुंदरी के स्वर में दर्द था। 'मिलता है, ऐसा एक सुयोग्य वर है।' 'कौन?' 'पर वह राजकुमार नहीं है... राजवंशीय नहीं है।' 'तो फिर?' 'वह है श्रेष्ठीपुत्र... वणिक्-वंशीय ।' रतिसुंदरी विचार में डूब गयी। उसने राजा के सामने देखा और पूछा : 'आप जो चाहते हैं वे सारी योग्यताएँ उसमें है?'
'हाँ... उसमें सभी योग्यताओं का सुभग समन्वय है... और मैंने तो उसे नज़रोनज़र देखा ही है, तुम भी उससे परिचित हो। और सुंदरी भी उसे भलीभाँति जानती है...' 'कौन?' 'अमरकुमार!'
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