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४० 'ठीक है, मैं आज पिताजी से मिलूँगी!' 'आज तू उपाश्रय गयी तब बाद में तेरे पिताजी ने धनावह श्रेष्ठी को यहाँ राजमहल में बुलवाया था।
क्यों?'
यह तो मैं नहीं जानती... पर उन्होंने कल श्रेष्ठी से बात की थी कि एक दिन मैं अमरकुमार और सुरसुंदरी की परीक्षा राजसभा में करना चाहता हूँ| शायद बात तय करने के लिए ही आज श्रेष्ठी को यहाँ बुलवाया होगा । श्रेष्ठी ने अमरकुमार से पूछ भी लिया होगा।'
सुरसुंदरी को अमरकुमार की बात सही लगी। वह ख़ामोश रही। उसे एक बात समझ में नहीं आ रही थी 'पिताजी क्यों हम दोनों की परीक्षा राजसभा में करने का इरादा रखते हैं? मेरी परीक्षा तो ठीक, पर अमरकुमार की परीक्षा लेने का क्या मतलब? इसका क्या कारण? भोजन करके वह अपने शयनखंड में पहुँच गयी।
सुरसुंदरी के दिल में अमरकुमार के प्रति प्रेम दिन-ब-दिन बढ़ रहा था। गहरा हुआ जा रहा था। अमरकुमार के प्रति उसका खिंचाव बढ़ता ही जा रहा था। हालाँकि कभी भी दोनों में से किसी ने मर्यादा-रेखा का उलंघन नहीं किया था।
अमरकुमार के दिल में भी सुरसुंदरी बसी हुई थी। पर वह समझता था कि 'सुरसुंदरी तो राजकुमारी है और मैं रहा श्रेष्ठीपुत्र! हम दोनों की शादी संभव ही नहीं है। सुरसुंदरी की शादी किसी राजकुमार से होगी।'
सुरसुंदरी के दिल में भी यही कल्पना थी - मैं अमर को कितना भी चाहूँ... पर मेरी शादी तो आखिर किसी राजकुमार से ही होगी। राजकुमारी भला एक श्रेष्ठीपुत्र से कैसे विवाह कर सकती है? ओह, भगवान! आज यदि मैं किसी श्रेष्ठी की कन्या होती तो मेरा सपना साकार बन पाता... हाय! पर आखिरी निर्णायक मेरे अपने पूर्वजन्म के उपार्जित अशुभ-शुभ कर्म ही होंगे न!'
विचारों में खोयी-खोयी सुरसुंदरी न जाने कब नींद के पंख लगाकर सपनों की दुनिया में पहुँच गयी।
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