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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ ३९ काश! मैं राजकुमारी न होती!! ‘पर परीक्षा किस बात की?' 'यह तू जान लेना न?' सुरसुंदरी विचार में डूब गयी... उसे यह बात न तो माँ ने कही थी, और न पिता ने हीं। 'क्यों क्या सोचने लगी? डर लग रहा है क्या?' "ऊँहूँ... डर किस बात का? मैं तो यह सोच रही थी कि मुझे तो मेरे पिता ने अथवा माँ ने इस बारे में कुछ कहा भी नहीं है। 'शायद अब कहेंगे।' 'तो हम तैयार हैं परीक्षा देने के लिए।' 'अच्छा, तुझे कोई विशेष-नई बात जानने को मिले, तो मुझे इत्तला देगी न? ‘पर कैसे दूँ इत्तला?' 'तू मेरी माँ से मिलने के बहाने चली आना हवेली पर! माँ तुझे याद भी करती है। ऐसा हो तो, मेरी माँ तुझे बुलावा भी भेज देगी।' 'हाँ, तब तो मैं आ सकती हूँ।' अमरकुमार हवेली की ओर चला। सुरसुंदरी रथ में बैठकर राजमहल की तरफ चली। महल में पहुँचकर कपड़े वगैरह बदलकर वह सीधे ही पहुंची रानी रतिसुंदरी के पास । उनका मन इंतजार कर रहा था अमरकुमार की कही हुई बात का तथ्य जानने का। 'बेटी, उपाश्रय हो आयी!' 'हाँ, माँ!' 'अरे माँ! इतना मज़ा आया कि बस! गुरूदेव ने कितना विशद विवेचन करके मुझे समझाया अनेकांतवाद के बारे में!' 'अच्छा तो अब तू मुझे समझाएगी न?' 'बाद में, माँ... अभी तो हम भोजन कर लें... जोरों की भूख लगी है!' भोजन करते-करते रानी ने बात छेड़ी। 'तेरे पिताजी आज कह रहे थे कि मुझे सुंदरी के बुद्धि-वैभव की परीक्षा करनी है!' 'अच्छा ? मैं तो तैयार हूँ! पर कब और कहाँ?' 'दो-चार दिन में ही और राजसभा में।' For Private And Personal Use Only
SR No.009637
Book TitlePrit Kiye Dukh Hoy
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2009
Total Pages347
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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