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काश! मैं राजकुमारी न होती!!
३८ 'इस अनेकांतवाद को जीवन में स्थान देना चाहिए। जीवनव्यवहार को सरस एवं सरल बनाने के लिए, कषायों से बचने के लिए यह विचारधारा काफी हद तक उपयोगी बनती है। सैद्धांतिक मतभेदों को भी इस विचारधारा के माध्यम से दूर किया जा सकता है। विवाद हमेशा पैदा होते हैं : एकांतवाद से | आग्रही बने रहने से। अनेकांतवाद में कोई आग्रह नहीं होता।
अब तो तुम्हारे दोनों का धार्मिक अध्ययन भी करीब-करीब पुरा हुआ, वैसा कहा जा सकता है... हालाँकि शास्त्रज्ञान तो अपार है... उसका कहीं अंत नहीं है, फिर भी जीवन में अत्यंत उपयोगी तत्त्वज्ञान तुमने प्राप्त कर लिया है। उस तत्त्वज्ञान का दिया बुझ न जाए... इसकी सावधानी रखना। संसार में विषय-कषाय की आँधियाँ चलती रहती हैं। यदि सावधान न रहें तो ज्ञान का दिया बुझ भी सकता है।
तुम में सत्त्व है... समझ है... मानव-जीवन को सफल बनाने के लिए जीवन में धर्म पुरूषार्थ को समुचित स्थान देना । अर्थ-पुरूषार्थ व काम-पुरूषार्थ तो मात्र साधन के रूप में ही सीमित रहने चाहिए। साध्य बनाना धर्म-पुरूषार्थ को! धर्म-पूरूषार्थ का लक्ष बनाना मोक्ष-दशा को । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने का ध्येय चूकना मत।
तुम में रूप, संपत्ति और यौवन का सुभग मिलन हुआ है... इसलिए तो तुम्हें ज्यादा जाग्रत रहना होगा। ये तीन तत्त्व अज्ञानी और प्रमादी आत्माओं को दुर्गति में खींच ले जाते हैं। ज्ञानी एवं जाग्रत आत्माएँ इन तीन तत्त्वों का सहारा लेकर उन्नति भी कर लेते हैं। उनके लिए रूप, जवानी और दौलत आशीर्वाद रूप बन जाते हैं।
अमरकुमार व सुरसुंदरी ने अहोभाव जताते हुए आचार्यदेव की प्रेरणा सुनी। उसे स्वीकार किया। पुनः पुनः वंदना की.. कुशलता पूछी और बिदा ली।
दोनों उपाश्रय के बाहर निकले। अमरकुमार ने सुरसुंदरी से पुछा : 'तुझे मालूम है... राजसभा में अपनी परीक्षा होनेवाली है?' 'नहीं तो... किसने कहा? मुझे तो तनिक भी पता नहीं है?'
'कल तेरे पिताजी ने मेरे पिताजी से कहा होगा। मुझे तो आज सुबह मेरे पिताजी ने कहा।
'क्या कहा?' 'तेरे पिताजी हम दोनों की परीक्षा राजसभा में लेना चाहते हैं।'
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