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जनम जनम तूं ही माँ!
महाराजा रिपुमर्दन अपने कक्ष में अकेले ही थे। रतिसुंदरी ने कक्ष में प्रवेश किया और भद्रासन पर बैठ गयी।
'देवी, सुंदरी का धार्मिक अध्ययन कैसा चल रहा है?' महाराज ने सीधी सुरसुंदरी की ही बात छेड़ी।
'मैं अभी उसके पास से ही आ रही हूँ। हम दोनों यही बात कर रही थीं। कुछ समय में तो उसने काफी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया है... अब ज्यादा अध्ययन...' ___ 'नहीं करवाना... यहीं न? क्यों? डर लगा क्या?' कही सुंदरी दीक्षा ले ले तो?' महाराजा हँस दिये। 'इतनी मेरी किस्मत कहाँ? वह साध्वी बने, तो मैं रत्नकुक्षि कहलाऊँगी न?' 'तो फिर क्यों ज्यादा अध्ययन नहीं करवाना?'
'कब तक पढ़ाएँगे उसे? अब तो उसे ससुराल बिदा करना होगा न? उसे ज़रा ध्यान से देखो तो...'
'वह यौवन में है, मैं जानता हूँ। उसके अनुरूप राजकुमार की खोज भी चालू है। फिर भी आज तक सफलता नहीं मिली। चाहे जैसे ऐसे-वैसे राजकुमार के साथ तो सुंदरी का ब्याह भी कैसे करें? हमने उसे जितने ऊँचे उम्दा संस्कार दिये हैं... जैसी कलाएँ जानती है तो उसके अनुरूप तो वर मिलना चाहिए न?'
'आज नहीं तो कल मिलेगा... उसका पुण्य ही खींच लाएगा सुयोग्य वर को।' रानी ने अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए आश्वासन दिया। _ 'यह तो अपना माता-पिता का हृदय है, इसलिए चिंता-फिक्र होना स्वाभाविक है, वर्ना तो इस बात में निर्णायक बनते हैं आत्मा के अपने शुभाशुभ कर्म । यह बात मैं कहाँ नहीं जानता हूँ देवी? पर, अपना कर्तव्य भी हमको पूरी जिम्मेदारी के साथ अदा करना है न?' 'मेरी एक विनती है आप से!' 'कहो, क्या बात है?' 'एक दिन आप सुरसुंदरी की ज्ञान की परीक्षा तो कर लें!'
रानी का प्रस्ताव सुनकर राजा सोचने लग गये। उन्होंने रानी के सामने देखा... कुछ सोचा और बोले :
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