________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जनम जनम तूं ही माँ !
'ओह, मुझे तो साध्वी जीवन अच्छा लगता ही है । '
'हाँ, पर अभी साध्वी बनने को नहीं कहती हूँ! यह तो अगले जन्म में यदि मैं तेरी माँ होऊँ और तू मेरी बेटी हो तो !'
३२
'माँ, मैं तो इस जनम में ही साध्वी हो जाऊँगी। मुझे तो एक दिन ऐसा सपना भी आया था...'
'यह तो तू रोज़ाना साध्वीजी के पास जाती है- उनके दर्शन करती है... इसलिए, ऐसे सपने कहीं सच नहीं होते।'
'चाहे, अभी सपना हो यह सपना ... इस जीवन में कभी न कभी तो सच होना चाहिए। सच कहती हूँ माँ, कभी-कभी मुझे साध्वी - जीवन के प्रति काफी खिंचाव हो आता है... हालाँकि यह आकर्षण कुछ देर ही होता है... फिर भी आत्मा में गहरे - गहरे तो यह आकर्षण रहेगा ही । '
'वह तो रहना ही चाहिए। मानव-जीवन की सफलता चरित्रधर्म में ही रही हुई है। परंतु अभी तो मुझे तेरी शादी करनी है...।'
‘देख माँ, हम बात कौन सी कर रहे हैं ? संयमशील जीवन की । इसमें फिर शादी की बात कहाँ से आयी ? मैं तो चली...' सुरसुंदरी खड़ी हो गई । रतिसुंदरी ने उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खिंचते हुए कहा :
बेटी, अब तू यौवन मैं है ... मैं और तेरे पिताजी यही तो सोच रहे हैं कि तेरे लिए सुयोग्य वर मिल जाए तो... '
सुरसुंदरी माँ का हाथ छुड़ाकर शयनकक्ष के बाहर दौड़ गयी... अपने कक्ष में जाकर बैठ गयी... फिर वापस उठी और माँ के पास आकर बोली :
‘माँ, मैं कल आचार्यदेव के पास जाऊँगी... अनेकांतवाद का अध्ययन करने लिए! जाऊँ न?'
‘ज़रूर जाना बेटी! मैं आचार्यदेव को समाचार भिजवा दूँगी, पर तू साध्वीजी से बात कर लेना कि मैं पूज्य आचार्यदेव के पास अनेकांतवाद का अध्ययन करने जाऊँगी । '
'वह तो मैं आज ही कह दूँगी। मेरी गुरूमाता भी तेरी तरह मुझे इज़ाजत देंगी ही ।'
For Private And Personal Use Only
सुरसुंदरी अपने कक्ष में चली गयी । रतिसुंदरी अपने कक्ष में से निकलकर महाराज के कक्ष की ओर चली ।