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जनम जनम तूं ही माँ! बैठकर उसने खाना खाया। भोजन से निपटकर माँ-बेटी दोनों शयनकक्ष में जाकर बैठे। 'बेटी, अब तेरा अध्ययन कितना बाकी है?'
'अरे माँ! यह अध्ययन तो कभी पूरा नहीं होगा... सारी ज़िदगी बीत जाए फिर भी इस अध्ययन का पूर्णविराम नहीं आता! यह तो अनंत है, असीम है।'
'तेरी बात सही है, पर बेटी सर्वज्ञ शासन के मूलभुत सिद्धांतों का तो अध्ययन हो गया है न?' __'हाँ, माँ, मैंने नव-तत्त्व सीख लिये। सात नये का ज्ञान प्राप्तकर लिया। मैंने चौदह गुणस्थानक जानें | मैंने ध्यान और योग की प्रक्रियाएँ समझी।'
'अब कौन सा विषय चल रहा है?' 'अब तो मुझे अनेकांतवाद समझना है।' 'बहुत अच्छा विषय है यह। एक बार पूज्य आचार्यदेव ने प्रवचन में अनेकांतवाद की इतनी विशद विवेचना की कि मैं तो सुनकर मुग्ध हो उठी। उस दिन मैं तेरे पिताजी के साथ प्रवचन सुनने के लिए गयी थी।
'माँ, मेरी भी यही इच्छा है कि 'अनेकांतवाद' का अध्ययन मैं पूज्य आचार्य भगवंत से करूँ। वे इस विषय के निष्णात हैं।'
'उन महापुरूष को यदि समय हो, तो विनती करना उनसे! वे तो परमकृपालु हैं। यदि अन्य कोई प्रतिकूलता न हुई तो जरूर वे तुझे अनेकांतवाद समझाएँगे।'
सुरसुंदरी तो जैसे नाच उठी। दोनो हाथ माँ के गले में डालकर उससे लिपट गयी।
'मुझे तो जनम-जनम तक तू ही माँ के रूप में मिलना।'
'यानी, मुझे जनम-जनम तक स्त्री का अवतार लेना है क्यों?' प्यार से पुत्री को सहलाते हुए रतिसुंदरी ने सुंदरी के गालों पर थपकी दी।
'मेरे लिए तो तुझे स्त्री का अवतार लेना ही होगा माँ!' 'अच्छा, तुझे मेरी एक बात माननी होगी।' 'अरे, एक क्या... एक सौ बातें मानूंगी, बोल, फिर?' 'तुझे चारित्र धर्म अंगीकार करने का!' 'यानी कि साध्वी हो जाने का... यही न?' 'हाँ!'
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