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जनम जनम तूं ही माँ! अनंत-अनंत विषमताओं से भरे इस संसार में एक मात्र सर्वज्ञ वचन ही सच्ची शरणरुप है । वे आत्मशांति प्रदान कर सकते हैं | शांत सुधारस का पान करवा सकते हैं।'
'आपका कथन यथार्थ है, गुरुदेव ।'
'तेरा आत्म-भाव शांत, प्रशांत और निर्मल बनता चले... यही मेरे आशीर्वाद हैं, वत्से!
सुरसुंदरी हर्षविभोर हो उठी। उसने पुनः पुनः वंदना की और उपाश्रय के बाहर आयी।
सुरसुंदरी अपने महल में चली आयी। उसके विचार आचार्य कमलसूरिजी की वाणी के इर्दगिर्द घूम रहे थे।
आचार्यश्री की करुणा से गीली आँखें... सुधारस-भरी उनकी वाणी... भव्य फिर भी शीतल उनका व्यक्तित्व! सुंदरी की अन्तरात्मा मानो उपशम-रस के सरोवर में तैरने लगी!
उस सरोवर के दूसरे किनारे पर जैसे अमरकुमार खड़ा-खड़ा स्मित विखेर रहा था। वह जा पहुँची अमरकुमार के पास । 'अमर... कितने अद्भुत हैं ये गुरुदेव! न किसी तरह का स्वार्थं, न कोई विकार। विचार-निद्रा में से वह जगी।
अमरकुमार से कहाँ और कैसे मिलूँ, यही वह सोचने लगी। वह झरोके में जाकर खड़ी हो गई। ऊपर नील गगन था। रेशमी हवा उसके अंग-अंग में सिहरन पैदा कर रही थी। सामने रहे आम के वृक्ष पर बैठी कोयल कूकने लगी और सुंदरी के दिमाग में एक मधुर विचार कूक उठा। ___'जिस समय अमर आचार्यश्री के पास अध्ययन करने जाता है, मैं भी उसी समय जाऊँगी आचार्यश्री को वन्दन करने के लिए, आचार्यश्री के सान्निध्य में ही तत्वचर्चा छेडूंगी।'
उसका मन-मयूर नाच उठा।
महल के आँगन में एक मोर अपने पंख फैलाकर नाचने लगा | सुंदरी मन ही मन बोल उठी : 'अरे, मोर, क्या तूने मेरे मन की बात जान ली? नाच... तू भी नाच!' 'सुरसुंदरी भोजनगृह में पहुँची, माता रतिसुंदरी के पास। माता के साथ
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