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शिवकुमार था। जवानी में आते-आते तो वह एक बदनाम जुआरी हो गया। शराब पीने लगा... मांस भक्षण से भी नहीं बच सका और भी कई तरह के पाप उसके जीवन में प्रविष्ट हो गये। पिता यशोभद्र जो कि धार्मिक वृत्ति के भले-भोले व्यक्ति थे, अपने बेटे के इस दुराचरण से काफी व्यथित थे। उन्होंने कई बार शिवकुमार को समझाने की कोशिश की थी, पर शिवकुमार को सुधारने में वे नाकामयाब रहे। श्रेष्ठी स्वयं कर्म सिद्धांत को जाननेवाले थे। वे समझते थे... 'बेचारे के कितने घोर पाप कर्म उदित हुए हैं? और फिर वह नये पाप बाँधे ही जा रहा है। क्या हो सकता है? कर्म परवश आत्मा की यही दुर्दशा होती है।' इस तरह वे अपने मन को ढाढ़स बँधा लेते थे, और तो करते भी क्या युवा पुत्र को ज्यादा कहना भी उचित नहीं था।
यशोभद्र श्रेष्ठी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। अपने बेटे के भविष्य की चिंता से वे काफी व्याकुल थे। उन्हें लगा 'शायद अब मेरी मौत मुझे बुलावा दे रही है।' एक दिन उन्होंने शिवकुमार को अपने पास बुलाकर एकदम प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा :
'वत्स..., अब मैं तो कुछ दिन का... शायद कुछ घंटों का मेहमान हूँ | मेरी मौत निकट है। आज तक मैने तुझे ज्यादा कुछ नहीं कहा... आज बस..., अंतिम बार एक सलाह दे रहा हूँ... जब भी तू किसी आफत में फँस जाए... कहीं बचने का कोई चारा न हो, तब श्री नमस्कार महामंत्र का एकाग्र मन से स्मरण करना। जरूर करना..., मुझे इतना वचन दे।'
शिवकुमार ने वचन दिया। यशोभद्र श्रेष्ठी ने आँखे मूंद ली। वे स्वयं श्री पंचपरमेष्ठी भगवंतों के ध्यान में लीन हुए | आत्मभाव में डूबे | श्रेष्ठी की मृत्यु हुई। वे मरकर देवलोक में देव हुए। __ अब तो शिवकुमार को कौन रोकने-टोकनेवाला था? वह पिता की अपार संपत्ति का दुर्व्यय करने लगा। दो-चार बरस में ही उसने सारी संपत्ति से हाथ धो दिये। वह रास्ते का भटकता भिखारी हो गया।
एक दिन नगर के बाहर शिवकुमार घूम रहा था, तब अचानक उसके सामने एक अघोरी बाबा आकर खड़ा हो गया । अघोरी ने शिवकुमार से कहा :
'लगता है, तू गरीब है। 'हाँ...' 'बोल, पैसा चाहिए?'
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