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नदिया सा संसार बहे
३०० __ कभी सुरसुंदरी और गुणमंजरी के साथ अमरकुमार अलग-अलग तीर्थों की यात्रा करने चला जाता है... कभी उपवनों-बगीचों में जाकर वे सब क्रीड़ा करते हैं। कभी चौपड़ खेलने बैठ जाते हैं।
सुख में तो बरस भी दिन बनकर उड़ जाते हैं... जलकर उड़ते कपूर की भाँति! दिन जैसे पल दो पल का हवा का झोंका बनकर गुज़र जाते हैं! धर्मअर्थ-काम तीनों पुरूषार्थ का उचित पालन करता हुआ यह परिवार प्रसन्नतापवित्रता से उमड़ता हुआ जीवन जी रहा है। दान-शील और तप उनके जीवन के श्रृंगार बन गये हैं...| परमार्थ, परोपकार उनके लिए आदत बन गये हैं...। प्रभुभक्ति और पंचपरमेष्ठी भगवंत उनकी साँसों के हर एक तार पर गीत बनकर बस गये हैं! आनंद की लहरों पर गुज़रती जीवन नौका सुखद... वातावरण में चली जा रही है। कई बरस इस प्रकार गुजरते हैं।
फिर एक दिन चंपानगरी में उद्भुत खुशियों का सागर उफनने लगा।
गुणमंजरी गर्भवती हुई। सुरसुंदरी ने गुणमंजरी को बेनातट-नगर भेजने को अमरकुमार से कहा। अमरकुमार ने हामी भर ली। श्रेष्ठी धनावह और राजा रिपुमर्दन भी गुणमंजरी को बेनातट नगर भेजने की तैयारी करने लगे। मृत्युंजय ने सुरसुंदरी से कहा :
'देवी, गुणमंजरी को लेकर मैं जाऊँगा बेनातट नगर! मैंने महाराजा गुणपाल को वचन दिया हुआ है।' 'बहुत अच्छा मृत्युंजय, तू साथ रहेगा तो फिर हम पूरी तरह निश्चित रहेंगे।" 'मैं गुणमंजरी को पहुँचाकर तुरंत लौट आऊँगा।' 'महाराजा गुणपाल का दिल प्रसन्न रहे... वैसे करना।'
शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में अनेक दास-दासियों के साथ गुणमंजरी को लेकर मृत्युंजय ने बेनातट की और प्रयाण किया।
एक दिन सुरसुंदरी अपने कक्ष में, संध्या के समय अकेली-अकेली झरोखे में खड़ी-खड़ी सोच रही थी... विचारों की गहराईयों में वह डूबती चली गयी। उसकी अंतरात्मा में शहनाईयाँ बजने लगी थी। जीवन के शाश्वत तत्त्वों का संगीत उभर आया था...!
'यह जीवन बीत जाएगा...' बाद में? भव भ्रमण का न जाने कब अंत आएगा? जन्म और मृत्यु न जाने कब पीछा छोड़ेंगे? सुख-दुःख के द्वंद्व न जाने कब मिट जाएँगे?
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