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नदिया सा संसार बहे
३०१ 'मैं रंगरेलियाँ और भोगविलास में डूबी जा रही हूँ... इंद्रियों के प्रिय विषयों को लेकर आनंद मान रही हूँ... कितने चिकने कर्म बंध रहे होंगे? ओह! आत्मन्, कब तू इन वैषयिक सुखों की चाह से विरक्त बनेगी? कब विरागी बनकर शांत... प्रशांत होकर... आत्म ध्यान में लीन हो जाएगी। __'जानती हूँ... समझती हूँ कि ये वैषयिक सुख ज़हर से कालकूट हैं ज़हर से कातिल हैं... फिर भी न जाने क्यों ये सुख अच्छे लगते हैं? परमात्मा से रोजाना प्रार्थना करती हूँ... कि 'प्रभो, मेरी विषयासक्ति छुड़ा दो... नाथ! मुझे भव वैराग्य दो... मुझ पर अनुग्रह करो... परमात्मन! मैं तुम्हारे चरणों में हूँ... मैं अपने आपको तुम्हारें चरणों में समर्पित करती हूँ...।'
'हाँ, मुझे परमात्मा से असीम प्रेम है... निग्रंथ साधु पुरूषों के प्रति मुझे श्रद्धा है...। सर्वज्ञ भाषित धर्म मेरा प्राण है। मुझे व्रत-तप अच्छे लगते हैं...। मेरी श्रद्धा क्या एक दिन फलीभूत नहीं होगी?' क्या मेरी आराधना फलवती नहीं बनेगी?'
सुरसुंदरी आत्ममंथन में लीन थी।
अमरकुमार हौले से कदम रखता हुआ पीछे आकर कब से खड़ा रह गया था। वह धीरे से मृदु स्वर में बोला :
आज किसी गंभीर सोच में डूबी हुई हो, देवी?'
सुरसुंदरी ने निगाहें उठाकर अमरकुमार को देखा... जैसे कि अभेदभाव से देखा... वह देखती ही रही... अपलक... अपलक!!!
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