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नदिया सा संसार बहे 'कुमार... मैं चाहता हूँ... अब तुम रोज़ाना राजसभा में आया करो।' 'मैं आऊँगा ज़रूर... पर मुझे राजकाज में तनिक भी रुचि नहीं है।' 'वह रुचि जगानी पड़ेगी... बढ़ानी पड़ेगी। कुमार, चूँकी भविष्य में यह तुम्हें ही सम्हालना है। तुम तो जानते ही हो... कि मेरी बेटी कहो या बेटा कहो... एक सुरसुंदरी हीं है।'
'महाराजा! आपकी बात सही है, परंतु...' 'परंतु क्या कुमार?' 'मेरा जीव है व्यापारी का... राजकार्य में मैं कितना सफल हो पाऊँगा... यह मैं नहीं जानता हूँ | पर एक बात है, मेरे साथ बेनातट नगर से मेरा एक दोस्त आया है। वह था तो बेनातट राज्य का मुख्य सेनापति... परंतु हमारी तरफ से प्रगाढ़ स्नेह से प्रेरित होकर वह हमारे साथ आया है। उसका पराक्रम भी अद्वितीय है और बुद्धि में भी वह बृहस्पति की तुलना करे वैसा है। उसे यदि मंत्रीपद दिया जाए तो वह काफी उपयोगी सिद्ध होगा। हालाँकि इस मृत्युंजय के बारे में तो मुझसे ज्यादा जानकारी आपकी पुत्री हीं दे देगी।'
'तुम ठीक कह रहे हो कुमार, हम मृत्युंजय को सेनापति पद और मंत्रीपद, यों दो जिमेदारी सौंप देंगे।' 'तब तो उसका सही सम्मान होगा।' 'और हम को एक पराक्रमी और बुद्धिशाली राजपुरूष मिलेगा।'
महाराजा ने सुरसुंदरी के साथ परामर्श करके मृत्युंजय को दोनो पद दे दिये। सुरसुंदरी के साथ मंत्रणा करके मृत्युंजय ने सबसे पहले गरीबों को दान देना प्रारंभ किया। राज्य के अधिकारी वर्ग का दिल जीत लिया। सब के साथ मधुर संबंध बना लिये । राज्य की तमाम परिस्थितियों का अध्ययन किया और राज्य के उत्कर्ष के लिए जी-जान से काम करना प्रारंभ कर दिया।
एक दिन महाराजा ने सुरसुंदरी को विदेश यात्रा के संस्मरण सुनाने का बहुत आग्रह किया | सुरसुंदरी पहले तो आशंका से सहम गयी, पर फिर उसने इस ढंग से सारी बातें कहीं ताकि महाराजा को अमरकुमार के प्रति तनिक भी अभाव या दुर्भाव अनुभव न हो । यक्षद्वीप से लेकर बेनातट नगर में अमरकुमार से फिर मिलन होने तक का सारा वृत्तांत सुनाया।
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