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नदिया सा संसार बहे का स्वागत किया। सुरसुंदरी और गुणमंजरी ने रथ में से उतरकर महाराजा के चरणों में प्रणाम किया। रिपुमर्दन ने दोनों के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिये । बरसों के बाद बेटी को देखकर उनकी आँखें हर्षाश्रु से भर आयीं।
तीनों महल में गये। रानी रतिसुंदरी अपनी बेटी और दामाद को देखकर खुशी से झूम उठी। सुरसुंदरी ने संक्षेप में गुणमंजरी का परिचय दिया। रतिसुंदरी ने गुणमंजरी को अपने उत्संग में लेते हुए उसे वात्सल्य से सराबोर कर दिया।
राजा-रानी से मिलकर तीनों धनावह श्रेष्ठी की हवेली पर जाने के लिये रथ में बैठे | हवेली के द्वार पर ही धनावह श्रेष्ठी खड़े थे। जैसे ही रथ हवेली के द्वार पर जाकर खड़ा रहा... अमरकुमार रथ में से कूदा और सीधा अपने पिता के चरणों में लेट गया। सेठ बेटे को सीने से लगाते हुए प्रसन्नता से छलक उठे | सुरसुंदरी और गुणमंजरी ने भी सेठ को प्रणाम किया। तीनों को साथ लेकर सेठ ने हवेली में प्रवेश किया।
सेठानी धनवती दौड़ती हुई आई। अमरकुमार माँ के चरणों में दण्डवत् लेट गया... सुरसुंदरी और गुणमंजरी ने भी धनवती के चरणों में सिर झुकाया । धनवती ने वात्सल्य से आशीर्वाद दिए... | गुणमंजरी को सूचक दृष्टि से देखकर सवाल-भरी निगाहों से सुरसुंदरी को देखा...। सुरसुंदरी ने मुस्कुराते हुए कहा :
'माँ, यह आपकी दूसरी पुत्रवधू है। बेनातट के महाराजा गुणपाल की लाड़ली बेटी गुणमंजरी है।' __ धनवती का दिल आनंद से बल्लियों उछलने लगा। उसने गुणमंजरी को अपनी तरफ खींचते हुए अपनी गोद में लेकर उसको स्नेह से भर दिया...। गुणमंजरी को लगा कि सास के रुप में मेरी अपनी माँ मुझे मिल गई है।' वह हर्ष से नाच उठी।
धनवती अपने लाड़ले को बरसों बाद निहार रही थी। बारह-बारह बरस का दीर्घ समय गुज़र चुका था । एक रात या एक दिन भी आँखों से दूर न होनेवाला बेटा विदेशयात्रा करके बारह बरसों के बाद लौटा था! ___ अमरकुमार ने धनावह श्रेष्ठी से कहलाकर याचकों को खुले हाथों दान दिया | नगर के सभी देवमंदिरों में उत्सव मनाये गये। आठ दिन तक नगर के
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