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बिदाई की घड़ी आई
२९१
पिता रिपुमर्दन राजा की पहचान दी । प्यार भरी सासु धनवती के गुण गाये । ससुरजी श्रेष्ठी धनावह का परिचय दिया | चंपानगरी के बारे में बातें बतायी.... और धीरे धीरे सुरसुंदरी अपने बचपन की यादों के दरिये में खींच ले गयी गुणमंजरी को। जी भरकर दोनों बतियाने लगी! अमरकुमार आँखें मूँदकर सुरसुंदरी के उदात्त और उन्नत व्यक्तित्व को आँकने लगा। उसे अपना व्यक्तित्व छिछला लगा... उथला लगा...!!!
'महाराजा, बेनातट में काफी दिन गुज़र गये...! समय इतनी जल्दी गुज़रा... कुछ पता ही नहीं चला। अब आप इजाज़त दें, तो हम चंपानगरी की ओर प्रयाण करें। माता-पिता से मिलना भी ज़रूरी है । बारह-बारह बरस बीत चुके हैं। इस बीच कितना कुछ बन चुका ... बिगड़ चुका । अब तो जल्द से जल्द मन माता-पिता को देखने के लिए बेताब हो रहा है !'
अमरकुमार ने महाराजा गुणपाल के समक्ष अपनी मनोकामना व्यक्त की ।
'कुमार, स्नेह के रिश्ते बँध जाने के बाद, मन जुदाई की पीड़ा महसूस करने से कतराता है। पर दुनिया का भी तो रिवाज है... 'बेटी तो ससुराल में ही...' उस व्यवहार का उल्लंघन करना भी मैं नहीं चाहता!'
महाराजा का दिल भर आया। वह ज्यादा कुछ भी बोल नहीं पाये । अमरकुमार ने भी ज्यादा कोई बात नहीं छेड़ी।
महाराजा गुणपाल ने महारानी से बात की। बेटी के वियोग की कल्पना से ही रानी तो दुःखी हो उठी। राजा-रानी दोनों उदास हो गये। फिर भी बेटी को बिदा तो करना ही था...। आज नहीं तो कल...! राजा-रानी ने सीने पर पत्थर रखकर तैयारियाँ प्रारंभ करवा दी।
अमरकुमार ने भी प्रयाण की तैयारी चालू की । नगर में बात फैलते देर नहीं लगी कि अमरकुमार सुरसुंदरी और गुणमंजरी के साथ चंपा की ओर प्रयाण करनेवाले हैं! पूरे बेनातट पर मानो बिजली गिरी। लोगों के लिए बड़ा अजीब वातावरण खड़ा हो गया। वैसे भी उनका प्रिय व्यक्ति विमलयश तो चला ही गया था। अब सुरसुंदरी... गुणमंजरी भी चली जाएँगी। लोगों के झुंड के झुंड आने लगे मिलने के लिए... मनाने के लिए!
'मत जाओ हमारे राजकुमार ... मत जाओ हमारी राजकुमारियों... तुम्हारे बिना यह बेनातट बेजान हो जाएगा। यह हँसता - खिलता बाग सदा सदा के लिए मुरझा जाएगा !!!
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