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बिदाई की घड़ी आई
२९२ राजा-रानी दोनों अमरकुमार के महल में आये | अमरकुमार और सुरसुंदरी ने बड़े आदर से सत्कार किया।
'कुमार, मैनें मृत्युंजय को सूचना दे दी है... तुम्हारी चंपायात्रा की जिम्मेदारी उसी के सुपुर्द की है। तुम्हारे २० जहाज़ों को सुसज्जित कर दे... और साथ में अन्य १० जहाज़ भी तैयार करें। मृत्युंजय स्वयं सौ सैनिकों के साथ चंपानगरी तक साथ आएगा। उसकी भी प्रबल इच्छा तुम्हारे साथ आने की है।' महाराजा ने सुरसुंदरी की ओर देखकर कहा : ।
'बेटी, तेरे बिना तो अब जीना भी कैसा लगेगा? तेरे विरह का दुःख कैसे सहा जाएगा? तेरे कारण तो मेरा नगर समृद्धि के शिखर पर पहुंचा। तू तो वास्तव में उत्तम आत्मा है। तू थी तो हम में भी कितने गुण आ गये तेरी संगति से | न जाने किस जनम का पुण्य था हमारा कि तू हमें मिली। तेरे साथ स्नेह बंध गया... प्रीत हो गयी... पर अब क्या होगा? दिन कैसे बीतेंगे...? किसको देखकर दिल बहलाएँगे...? किसे पूछकर अब हर कार्य करेंगे...? किसके मुँह से मीठे बोल सुनेंगे-? बेटी... तू तो चली जाएगी हम सबको छोड़कर, पर हमारा जीना दुश्वार हो जाएगा!'
सुरसुंदरी फफक-फफक कर रो पड़ी। उसने महाराजा के चरणों में अपना सिर रख दिया । महाराजा गुणपाल की आँखें रो-रोकर लाल हुई जा रही थीं। गुणमंजरी भी सिसक रही थी। महारानी ने गुणमंजरी को अपनी गोद में खिंच लिया। अमरकुमार से यह करुण दृश्य देखा नहीं गया। वह अपने कमरे में जाकर पलंग पर गिरता हुआ रो पड़ा। सारा महल शोक-परिताप... वेदना
और आँसुओं से भर गया। रानी गुणमाला ने भर्रायी आवाज़ में कहा : ___ 'प्यारी बेटी, मेरी लाड़ली बेटी, मैंने तुझे कभी रूठी हुई देखा नहीं है। मैंने सदा तेरा हँसता - खिलता फूल-सा गुलाबी चेहरा देखकर अपने इतने बरस सुख में गुज़ारे हैं| तू तो मेरी जिंदगी है - मेरी साँसों का तार है - मेरा सर्वस्व है...
बेटी, मेरी लाड़ली, कुछ बातें कहती हूँ तुझसे, उन बातों का पालन करना। बेटी, कभी भी श्री नवकार मंत्र को भूलना मत | पंचपरमेष्ठी भगवंतों का ध्यान करना। अपने दिल में धर्म की स्थापना करना। तू ससुराल जा रही है... तो वहाँ के कुलाचारों का भली-भाँति पालन करना।
गृहस्थजीवन का श्रृंगार है दान | अनुकंपादान देना । सुपात्र को दान देना । बेटी, घर पर आये हुए किसी का तिरस्कार मत करना। किसी को दुत्कारना
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