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बिदाई की घड़ी आई
२९० __ सुख में दिन को पंख लग जाते हैं। समय इतनी जल्दी से सरकता रहा जैसे कि चट्टान पर से बहता पानी! अमरकुमार दोनों पत्नियों के साथ सुखभोग में डूबगया है...। एक दिन दोनों पत्नियों के साथ रथ में बैठकर वह समुद्र के किनारे घूमने के लिये गया। वहाँ किनारे पर उसने अपने जहाज़ लंगर डाले पड़े हुए देखे...। उसके मन में यकायक चंपानगरी की स्मृति हो आई। माँ-पिताजी... सब की याद मँडराने लगी दिल के आकाश में! उसने सुरसुंदरी से कहा : 'चंपा की तरफ कब प्रयाण करेंगे?' 'जब आपकी इच्छा हो, तब!'
'तो मैं आज ही महाराजा से बात करता हूँ...। वे इजाज़त दें, फिर हम प्रयाण की तैयारी करें...।'
'सुरसुंदरी के मनोगगन में चंपा उभरी... माता-पिता, सास-ससुर की स्मृति उभरी । साध्वी सुव्रता की याद आ गयी...। अपने आप उसके दोनों हाथ जुड़ गये... सिर झुक गया।
'किसे प्रणाम कर रही हैं आप?' गुणमंजरी ने सुरसुंदरी के दोनों हाथों को अपने हाथों में लेते हुए पूछा | सुरसुंदरी ने गुणमंजरी की ओर देखा : 'मेरी गुरुमाता को... मंजरी!' 'कौन हैं वे?'
'साध्वीजी हैं...। उनकी आँखों में से करुणा का झरना झरता है। उनकी वाणी में सुधा झरती है...। मुझे श्री नवकारमंत्र का स्वरूप उन्होंने ही समझाया था! रहस्य भी उन्होंने ही बताया था। श्रद्धा की अक्षय और अनगिनत ताकत भी उन्होंने दी थी!' 'हमें चंपा में उनके दर्शन होंगे?'
'यदि अपनी खुशकिस्मती होगी तो! अन्यथा जिनशासन के श्रमण-श्रमणी एक स्थान पर रहते नहीं हैं। विचरते रहते हैं। घूमते रहते हैं...। यदि हमको मालूम पड़ेगा तो हम वह जहाँ भी होंगे वहाँ चलेंगे। उनकी वंदना करेंगे। मैं तो उनका ऋण अभी अदा नहीं कर सकती। यदि उन्होंने मुझे नवकार मंत्र नहीं दिया होता तो?' सुरसुंदरी की आवाज़ भावकुता से भीगने लगी थी।
सुरसुंदरी ने गुणमंजरी को अपनी माँ रानी रतिसुंदरी का परिचय दिया।
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