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चोर, जो था मन का मोर
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[ ४०. चोर, जो था मन का मोर HSHY
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दूसरे दिन सबेरे आवश्यक कार्यों से निपटकर विमलयश ने सुंदर वस्त्रआभूषण धारण किये। सिर पर मुकुट रखा... कानों में कुंडल पहने। अपने महल में मंत्रणागृह में सिंहासन पर बैठा और अपने आदमी को भेजकर अमरकुमार को अपने पास बुलाया।
अमरकुमार ने आकर, सिर झुकाकर प्रणाम किया। वह सिर झुकाकर खड़ा रहा। विमलयश ने बड़े ध्यान से अमरकुमार को देखा। 'श्रेष्ठी, तुम तो वाणिक-व्यापारी हो न?' 'जी हाँ...' व्यापारी होकर चोरी करते हो...?' 'महाराज, मैं सच कहता हूँ... मैंने चोरी नहीं की है।'
'अरे... समान के साथ रंगे हाथों पकड़े जाने पर भी चोरी का गुनाह कबूल नहीं करते हो! क्या गुनाह कबूलवाने के लिए चौदहवें रतन का प्रयोग करना होगा?' _ 'महाराज, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आपका माल मेरे जहाज़ों में आ कैसे गया? मैंने चोरी नहीं की है।' ___ 'श्रेष्ठी, जानते हो कि यहाँ पर तुम्हे छुड़वानेवाला कोई नहीं है। चोरी के साथ-साथ कपट करना भी अच्छा आता है तुम्हें? इस देश में चोरी की क्या सज़ा मिलती है यह जानते हो न...?' विमलयश का चेहरा लाल-लाल हो उठा... तमतमाये हुए चेहरे से उसने धमकाया... और अमरकुमार बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया!!! 'मालती...' विमलयश ने आवाज़ दी। मालती दौड़ती हुई आयी। 'शीतल पानी के छींटे डाल इस परदेशी पर, और पंखा ला ।'
मालती जल्दी-जल्दी पानी ले आयी और अमरकुमार पर छींटने लगी। विमलयश पंखा हिलाने लगा। कुछ देर बाद अमरकुमार होश में आया।
मालती चली गयी।
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