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चोर, जो था मन का मोर
२७० ___ विमलयश के लिए अब मैदान साफ हो गया था! अमरकुमार को सबक सिखाने की योजना उसने मन में सोची थी... उसने एक रात यू ही बीतने दी... वह अमरकुमार के पास गया ही नहीं। इधर अमरकुमार अधीर हो गया था... 'कब राजा मुझे बुलायेगा? यहाँ पर खाने की रहने की सुविधा अच्छी है... पर वह तो सूली पर चढ़ाने से पहले अपराधी को मनपसंद भोजन या अन्य कुछ देने की पद्धति होती है।' वह डर से सहम उठा। उसके शरीर पर पसीने की बूंदे उभरने लगे। _ 'नहीं... नहीं मैं विनम्र शब्दों में प्रार्थना करूँगा... हकीकत बता दूँगा... मुझे ज़रूर मुक्ति मिल जाएगी... राजा इतना तो निर्दय नहीं होगा! वरना तो मेरे यहाँ पर आते ही वह गुस्से से बोखला उठता... और मुझे सज़ा फरमा देता!' __ मेरे जहाज़ों में यह सारा चोरी का माल आया कैसे? क्या मेरे आदमियों ने चोरी की होगी? या फिर किसी कौतुहली व्यंतर ने यह कार्य किया होगा? हाँ... मैंने बचपन में आचार्यदेव से एसे व्यंतरों की कहानियाँ सुनी थी... केवल परेशान करने के लिए व्यंतर लोग ऐसा करते रहते हैं! औरों को दुःख देने में कुछ देवों को... कुछ आदमियों को आनंद मिलता है... मज़ा आता है!
'और हाँ... सुरसुंदरी को यक्षद्वीप पर छोडकर मुझे भी आनंद हुआ था न? ओह! उस पतिव्रता सती नारी को मौत के मुँह में फेंक देने का घोर पाप इस तरह आज उदित हो गया?' अमरकुमार को सुरसुंदरी की स्मृति हो आयी। और उसकी आँखें बहने लगीं...
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