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चोर, जो था मन का मोर
२७२ ___ अमरकुमार की आँखों में आँसू छलछला उठे। उसने विमलयश के पैर पकड़ लिये। वह बेबस होकर गिड़गिड़ाने लगा।
'मेरी सारी संपत्ति ले लीजिए... मेरे शरीर पर धारण किये हुए ये आभूषण ले लीजिए... मुझे यहाँ से जिंदा जाने दीजिए...। मैं आपका उपकार कभी नहीं भुलूँगा। आप मुझ पर मेहरबानी करें | मैं आपकी शरण में हूँ... मुझ पर कृपा कीजिए... कृपा कीजिए...!' 'मैं तुम्हें छोड़ तो दूँ... पर एक शर्त है...।' 'आप कहे वैसे करने के लिए मैं तैयार हूँ... । 'आज रात को मैं तुम्हे सवा सेर घी दूंगा... तुम्हें मेरे पैरों के तलवों मे वह घी लगाना-मलना है। सवा सेर घी मेरे पैरों में उतार देना है। बोलो, है कबूल?'
'जी हाँ, कबूल है!' 'तो अभी जाओ... दिन में आराम से सो जाना। रात को जगना पड़ेगा न?' अमरकुमार को उसके कमरे में विदा किया गया। विमलयश देखता रहा... दीन-हीन और हताश बनकर चले जा रहे अमरकुमार को | उसके चेहरे पर स्मित की रेखा उभरी। 'औरों को दुःख देने में खुशी मनानेवाले को थोड़े दुःख का अनुभव करवाना ज़रूरी है!' __ परंतु दूसरे ही पल उसका हृदय दुःखी हो गया। 'नहीं, नहीं अब... उन्हें
और दुःखी नहीं करना है... भेद खोल दूँ... उन्हें आश्चर्य में डाल दूँ...।' __'नहीं... ऐसी जल्दबाजी नहीं करनी है...। उनके दिल में मेरे लिए कितनी जगह है? कैसे भाव हैं? यह जान लेना चाहिए | बारह-बारह साल बीत चुके हैं, दिल के भाव अगर बदल गये हों तो? मुझसे जो गुस्सा था अभी उतरा नहीं हो तो?' ___ उनके साथ दूसरी कोई औरत नहीं है... अर्थात् उन्होंने दूसरी शादी तो नहीं की है, ऐसा अंदाजा लगता है। उनके दिल में मेरा त्याग करके पछतावा तो हुआ ही होगा... मेरी स्मृति भी उनके दिल-दिमाग में होगी ही। कभी इन्सान कषाय से विवश होकर न करने योग्य कर डालता है, पर पीछे से वह पछताता है...।
'फिर भी बातों ही बातों में कल मैं उनसे पूछ भी लूँगा | मेरे संबंध में उनके
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