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करम का भरम न जाने कोय
२६७ 'मिलने के लिए नहीं आया हूँ... सार्थवाह... तुम्हारे जहाजों की मुझे तलाशी लेना है!'
'पर क्यों?' 'हमारे महाराजा विमलयश के महल में आज ही चोरी हुई है और उस चोरी का माल तुम्हारे जहाज़ों में होने का शक है...।' __'आप क्या बोल रहे हैं सेनापति? आपके महाराजा के वहाँ चोरी हो और माल मेरे जहाज़ों में आ जाए? अशक्य! बिलकुल संभव नहीं है...'
'सार्थवाह, पर देख लेने में हर्ज क्या है? यदि माल नहीं मिला तो तुम निर्दोष सिद्ध हो जाओगे... और अगर माल मिल जाए तो कारागार में तुम्हें पहुँचा दूंगा...' __'ठीक है... तलाशी ले सकते हो... पर इस तरह परदेशी सार्थवाह को परेशान करना तुम्हें शोभा नहीं देता...!!' अमरकुमार बौखला उठा।
'और परदेश में आकर... राजमहल में चोरी करना तुम्हें भी शोभा नहीं देता, सार्थवाह... समझे ना?' ___ 'पहले चोरी साबित करो... बाद में इलज़ाम लगाना!' अमरकुमार गुस्से से तड़प उठा।
मृत्युंजय ने अपने सैनिकों को, विमलयश के आदमियों के साथ जहाज़ों की तलाशी लेने के लिए भेजा । अमरकुमार ने भी अपने आदमी साथ में भेजे । मृत्युंजय अमरकुमार के पास ही बैठा। करीबन एक प्रहर बीत गया।
सैनिक विमलयश के नाम से अंकित स्वर्ण आभूषण लेकर किनारे पर आये । अमरकुमार के आदमियों के चेहरे उतरे हुए थे। अमरकुमार ने आते ही अपने आदमियों से पूछा। 'क्यों? क्या हुआ?'
'क्या होना था? चोरी का माल मिल गया, सेठ! तुम्हारे जहाज़ों में।' सैनिकों ने आभूषणों का ढेर बना दिया मृत्युंजय के सामने! मृत्युंजय ने अमरकुमार के सामने देखा... अमरकुमार हतप्रभ सा हो गया... उसकी आँखों में भय अंकित हुआ। ___ 'कहिए... सार्थवाह... यह क्या है? क्या देश-विदेश में घूमकर इस तरह चोरियाँ करकरके हीं करोड़ों रुपये कमाये हैं क्या?'
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