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करम का भरम न जाने कोय 'तब तो तुम यहाँ पर विपुल संपत्ति अर्जित कर सकोगे।'
राजपुरूष नाव में बैठकर वापस किनारे पर लौट आये और सीधे विमलयश के पास पहुँच गये। विमलयश को समाचार दे दिये। विमलयश ने कहा : 'अब तुम जाओ और सेनापति मृत्युंजय को मेरे पास भेजो।' मृत्युंजय कुछ ही देर में उपस्थित हुआ। 'आज्ञा कीजिए... मुझे कैसे याद किया?' 'मृत्युंजय, मेरे महल में से मेरे रत्नजड़ित आभूषणों की चोरी हो गयी है।' 'आपके वहाँ पर चोरी?' मृत्युंजय की भौहें खिंच गयीं। 'हाँ... और वह चोरी करनेवाला कौन है... उसका मुझे ख्याल भी आ गया
'कौन है वह चोर?' 'आज आया हुआ वह सार्थवाह! मैंने राजसभा में जब पहले-पहले उसे देखा तब ही मुझे महसूस हो गया था कि यह आदमी बाहर से जितना भलाभोला लगता है... भीतर से वैसा नहीं है...'
'तब तो उसे बंदी बनाकर यहाँ ला कर पटक दूंगा!'
'नहीं... तुम जाओ... उसके पास... उसे थोड़ा धमकाना... फिर उसके जहाजों की तलाशी लेना... चोरी का माल पकड़ो... माल यदि मिल जाए... तो उसे पकड़कर यहाँ मेरे पास ले आओ... और हाँ, तुम्हारे साथ मैं अपने आदमियों को भी भेजता हूँ। वे अभी-अभी उस सार्थवाह से मिलकर आये हैं।'
मृत्युंजय अपने विशेष सैनिक दस्ते को साथ लेकर, विमलयश के आदमियों के साथ समुद्र के किनारे पर जा धमका | अमरकुमार उसे किनारे पर ही मिल गया।
'सेनापति, यह हे अमरकुमार सार्थवाह...' विमलयश के आदमियों ने अमरकुमार का परिचय करवाया।
श्रेष्ठी यह हें हमारे सेनापति मृत्युंजय! आपसे मिलने के लिए यहाँ पर पधारे हैं।' आदमियों ने सेनापति का परिचय करवाकर आने का कारण बताया... इतने में तो मृत्युंजय बोल उठा...
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