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करम का भरम न जाने कोय 'तुमने आज राजसभा में आये हुए सार्थवाह को देखा है न?' 'जी हाँ...' 'समुद्र के किनारे पर उसके बीस जहाज़ खड़े हैं... तुम्हें यहाँ से मेरे नाम से अंकित सभी क़ीमती अलंकार ले जाना होगा... और उन जहाज़ों में इस ढंग से छुपा देना कि किसी को ज़रा भी संदेह न आए, न ही मालूम हो सके... इतना कार्य करके मुझे समाचार देना।'
'जैसी आपकी आज्ञा, कार्य हो जाएगा।' विमलयश ने आदमियों को तिजोरी में से आभूषण निकालकर दे दिये।
अलंकारों को अपने कपड़ों में छुपाकर वह राजपुरूष समुद्र के किनारे पर गये। अमरकुमार के रक्षक जहाज़ों की रक्षा करने के लिए तैनात खड़े थे। राजपुरूषों ने कहा :
'हम महाराजा की आज्ञा से आये हैं। हमें तुम्हारे सेठ के सभी जहाज़ देखने हैं।'
'पधारिए... जहाज़ पर! हमारे सेठ भी अभी-अभी वापस लौटे हैं, राजसभा में से!' रक्षक लोग राजपुरूषों को जहाज़ पर ले गये। अमरकुमार से मिले । दो राजपुरूष अमरकुमार से बतियाने लगे। दूसरे दो आदमी एक के बाद एक जहाज़ में, साथ में लाए हुए गहने छिपाते हुए आगे बढ़ते गये। कार्य बड़ी कुशलता से निपटाकर वे वापस अमरकुमार के जहाज पर आ गये। ___ 'सेठजी, आपके जहाजों में तो देश-विदेश का अदभुत माल भरा हुआ है। यह सारा का सारा माल बेनातट नगर में बिक जाएगा... और ढेर सारी संपत्ति कमाकर जाओगे!' ___'बेनातट की ख्याति सुनकर तो मैं यहाँ पर आया हूँ... महाराजा ने भी मुझपर बड़ी मेहरबानी की... मुझे व्यापार करने की अनुमति दी...'
'पर सेठ, एक बात ध्यान में रखना...' 'क्या बात?'
'हमारे महाराजा न्याय-नीति और ईमानदारी के बड़े पक्षपाती हें... इसलिए व्यापार करते समय...'
'ओह... समझ गया... मेरा भी यही सिद्धांत है... न्याय-नीति ही मेरे व्यापार की मुख्य आधारशिला है।'
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