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करम का भरम न जाने कोय
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३९. करम का भरम
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राजसभा लगी थी ।
महाराजा गुणपाल के समीप के सिंहासन पर ही विमलयश बैठा था । राजसभा की कार्यवाही रोज़ाना की तरह चल रही थी। इतने में द्वारपाल ने आकर महाराजा को प्रणाम कर के निवेदन किया :
‘महाराजा, एक परदेशी सार्थवाह आपके दर्शन के लिए आना चाहता है! उन्हें आदरपूर्वक भीतर ले आओ।'
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महाराजा ने आज्ञा दी । द्वारपाल नमन कर के पिछले कदम वापस लौटा और राजसभा में एक तेजस्वी गौरवदन युवक सार्थवाह ने प्रवेश किया।
विमलयश की निगाहें सार्थवाह के चेहरे पर लगी... और वह चौंक उठा... 'ओह... यह तो मेरे स्वामीनाथ ! अमरकुमार ! आ गये... मणिशंख मुनि का वचन सत्य सिद्ध हुआ...!!' विमलयश ने अपने मनोभावों को चेहरे पर आने नहीं दिया! सार्थवाह ने आकर महाराजा को प्रणाम किया और रत्नजड़ित थाल में सजे हुए क़ीमती जवाहिरात को उपहार स्वरूप प्रस्तुत की । महाराजा ने आदर पूर्वक नज़राना स्वीकार किया और सार्थवाह को राजसभा में उचित स्थान दिया। सार्थवाह ने विनम्र स्वर में निवेदन किया :
'महाराजा, मैं चंपानगरी का सार्थवाह अमरकुमार हूँ... बारह बरस से देश-विदेश में परिभ्रमण करते हुए व्यापार कर रहा हूँ... आज सबेरे हीं बेनातट के किनारे पर मेरे बीस जहाज़ लेकर आ पहुँचा हूँ... आपकी मेहरबानी हो तो यहाँ पर व्यापार करना चाहूँगा ।'
‘अवश्य... सार्थवह! मेरे राज्य में तुम बड़ी खुशी से व्यापार कर सकते हो!' 'आपकी बड़ी कृपा हुई मुझ पर, !'
विमलयश तो कभी का राजसभा में से निकलकर अपने महल में पहुँच गया था। उसने अपने एकदम विश्वस्त आदमियों को बुला लिया और गुप्त यंत्रणाकक्ष में जाकर उनसे कहा :