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करम का भरम न जाने कोय
२६८ मृत्युंजय ने अमरकुमार के समक्ष दाँत पीसे। उसने अपने सैनिकों को आज्ञा की :
'सभी जहाज़ों पर कब्जा कर लो। इस चोर के तमाम आदमियों को बंदी बना लो... और कारागृह में बंद करो दो!'
अमर की तरफ देखकर मृत्युंजय ने कड़े शब्दों में कहा : 'सेठ, तुम्हें मेरे साथ आना है। हमारे महाराजा विमलयश के पास तुम्हें ले जाया जाएगा!
'महाराजा का नाम तो गुणपाल है न...?' 'दुसरे महाराजा हे विमलयश | महाराजा गुणपाल के दामाद हे... आधे राज्य के मालिक वे हैं।' ___ अमरकुमार पर जैसे कि बिजली गिरी! वह बिलकुल मूढ-सा हो गया। सेनापति के साथ बलात् खिंचता हुआ चला। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब हुआ कैसे? चोरी मैंने की नहीं है... न मैंने करवायी है... और चोरी का माल मेरे जहाज़ों में आ कैसे गया? इस परदेश में मेरा है भी कौन? यहाँ मुझे कौन पहचानता है? मेरी सच्ची बात को भी यहाँ मानेगा कौन? मैं तो माल के साथ पकड़ा गया हूँ| और चोरी की सजा? क्या यह राजा मुझे सूली पर चढ़ा देगा? कारागार में बंद कर देगा? मेरी बाकी जिंदगी क्या कैदखाने की सलाखों की ओट में बीतेगी?
विमलयश का राजमहल आ गया था | महल के एक गुप्तखंड में अमरकुमार को बिठाकर मृत्युंजय ने कहा : ___'व्यापारी के भेस में छुपे हुए ठग... तू यहीं पर बैठ । मैं जाकर महाराज से निवेदन करता हूँ कि चोर पकड़ लिया गया है और उसे यहाँ पर ले आया
'चोर... ठग...' अमरकुमार जिंदगी में पहली बार ऐसे कठोर शब्द सुनता है... उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है... उसका सिर जैसे फटा जा रहा था... मृत्युंजय कमरे का दरवाज़ा बंद करके विमलयश के समक्ष उपस्थित हुआ।
'महाराजा आपकी आज्ञा के अनुसार चोर को महल के गुप्त कमरे में बंद कर दिया है। अब क्या करना है?'
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