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सुर और स्वर का सुभग मिलन
२५६ ___ विमलयश ने मृत्युंजय को गुफा में से धनमाल लाने के लिए रवाना किया। साथ में रथ और अन्य वाहन भेजे एवं सैनिकों को रवाना किया।
महाराजा की आज्ञा लेकर विमलयश अपने राजमहल में आया ।
महल के द्वार पर ही मालती ने अक्षत् से उसे बधाई दी... स्वागत किया। विमलयश ने प्रसन्न होकर अपने गले का क़ीमती रत्नहार देकर मालती को सम्मानित किया।
'महाराजा, अब तो यह महल 'राजमहल' बन जाएगा... और मैं महारानी की परिचारिका बन जाऊँगी!' 'तू तो अभी से सुनहरे ख्वाब देखने लगी री... अभी तो...!' 'अरे... कुमार अब तो क्या देर? चट मँगनी पट शादी! देखना कल ही राजपुरोहित शादी का मुहूर्त बता देंगे! अरे बाबा... अब देर काहे की? वैसे भी मियाँ-बीबी तो राजी ही हैं!' 'चुप मर... बहुत ज्यादा बोलने लगी है... मालती आज कल तू!'
कुमार, मुझे डाँटते हो, वह तो ठीक है, पर हमारी राजकुमारी को कुछ भी कहा तो खबरदार है!' 'बड़ी आयी राजकुमारी की वकालत करनेवाली!' और विमलयश की हँसी से महल खिलखिला उठा।
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