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राज्य भी मिला, राजकुमारी भी!
२५१ प्रजा में हाहाकार मच गया। चारों तरफ आँसू, उदासी और सिसकियाँ छा गयी । हज़ारों प्रजाजन रोते-कलपते महाराजा के पीछे चलने लगे। सभी स्तब्ध थे, उद्विग्न थे, उदास थे। रानी की आँखें तो रो-रो कर सूज गयीं थीं। दिल में से गरम-गरम निश्वास निकल रहे थे। वह रोती-रोती बोल रही थी, 'मैं भी नहीं जीऊँगी अब... मैं भी आपके साथ अग्निप्रवेश करूँगी। बेटी और स्वामी के बिना जिऊँ कैसे? मेरे कारण... मेरी बेटी के कारण बेचारा वह परदेशी कुमार भी बलि बन गया...!!! ___ महाराज के साथ सभी नगर के बाहरी इलाके में आये । महाराजा ने अपने सेवकों से कहा : 'चिता रचा दो।'
बेचारे सेवक! आँसू बहाती आँखों से और भारी दिल से राजा की आज्ञा का पालन करते हुए चिता रचाने लगे।
महाराजा और महारानी ज़मीन पर बैठ गये। महाराजा ने श्री नवकार महामंत्र का मंगल स्मरण किया। वे महामंत्र के जाप में लीन हुए। उनका शरीर रोमांच से सिहर उठा । आँखों में से बरबस आँसू बहने लगे | पंचपरमेष्ठि भगवतों का स्तुतिगान उनके होंठों पर अनायास छलकने लगा :
'ओ पंचपरमेष्ठि भगवंत!' ___ मैंने सदा-सदा के लिए मेरी क्षेम-कुशल की सारी की सारी चिंता आपके चरणों में रख दी है। यदि इन संकट की घड़ियों में भी आप सहारा नहीं देंगे मुझे, आप मेरा त्याग कर देंगे, तो फिर त्रिभुवन में आपका विश्वास कौन करेगा? विश्व में आपकी करूणा व्यर्थ मानी जाएगी! 'हे महामंत्र नवकार!
जैसे सरयू के पावन नीर में काष्ठ डूब नहीं जाता, अपितु तैरता है, वैसे ही आपकी करूणा के नीर में भव्य जीवात्मा तैरते हैं... आपका वह करूणा प्रवाह मेरे सारे संकटों को दूर हटा दे... हमारी आफतों को नष्ट कर दे...!' 'हे पंचपरमेष्ठि प्रभो!
आप ही धर्म का उद्भवस्थान रूप हैं। आनंद के झरने रूप हैं। भवसागर को तैरने के लिए तीर्थ रूप हैं। तीनों लोकों के निर्मल श्रृंगार रूप हैं। जगत के अज्ञान-अंधकार को दूर करनेवाले हो। आपका ऐसा दिव्य स्वरूप हमारे जीवनताप को दूर करे... हृदय संताप को चूरचूर कर दे! सुख का नूर जीवन में भर दे! हमारी बिगड़ी हुई बात को बना दे । दुःख-संताप के दलदल में फँसी हमारी जीवन-नौका को सुख-शांति के नीर में पहुँचा दे!
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