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राज्य भी मिला, राजकुमारी भी !
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महल के दरवाज़े खुले और बिना किसी रक्षक के देखकर राजा के दिल में सन्नाटा छा गया! महल में प्रवेश करते ही राजा ने आवाज दी : 'विमलयश... विमलयश' पर कोई जवाब नहीं मिला । महल का एक-एक खंड राजा ने देख लिया, पर कहीं भी विमलयश का अता-पता नहीं था । तिजोरियाँ खाली पड़ी हुई थी। धनमाल चोरी हो गया था ओर विमलयश गुम हो चुका था।
महाराजा गुणपाल भय से सिहर उठे । दौड़ते हुए महल में लौटे। मंत्रीगण, सेनापति, नगरश्रेष्ठी... सभी एकत्र हो गये थे।
'ओह! गजब हो गया! चोर ने तो कहर ढा दिया है! विमलयश का अपहरण हो गया है। उसकी धनसंपत्ति भी चली गयी है ।' बोलते-बोलते राजा अपनी हथेलियों में मुँह छिपाकर फफक पड़े!'
सभी किंकर्तव्यविमूढ़ बन चुके थे। क्या कहना ? क्या बोलना ? क्या करना ? कैसे यह भेद खोलना? किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था! सभी की आँखें भर आयी थीं, निराशा... हताशा... उदासी और स्तब्धता ने सभी को घेर लिया था! महाराजा का स्वर और ज्यादा व्याकुलता से छलक उठा :
'मैं अपने प्रजाजनों की सुरक्षा नहीं कर सका । परिवार की रक्षा करने में तो नाकाम रहा ही हूँ... मेरे भरोसे जान की बाजी खेलनेवाले उस परदेशी राजकुमार को भी मैं नहीं बचा सका ! मेरा कितना दुर्भाग्य है ? अब मेरा जीना भी किस काम का ? संसार में मुझे जीने का हक नहीं है... । मेरा मन जीने से.... इस दुनिया से भर गया है। अब मुझे जीना ही नहीं है! बेटी के बगैर .... उस प्यारे परदेशी राजकुमार के बगैर मैं जिंदा रहकर क्या करूँगा? मैं जीना ही नहीं चाहता! नगर में बाहर लकड़ियों की चिता रचा दो, मैं अग्नि प्रवेश करूँगा ! मुझे कोई नहीं रोक सकता अग्निप्रवेश करने से ! मेरा निर्णय आखिरी है !'
महारानी की चीख से वातावरण काँप उठा! आकाश में से जैसे बिजली टूट गिरी... राजपरिवार फफकने लगा। मंत्रिमंडल रो पड़ा । नगरश्रेष्ठी भी आँसू बरसाने लगे। पूरा राजमहल विषाद से सिसकने लगा! सभी ने प्रयास किया राजा को समझाने का, पर महाराजा गुणपाल सभी को रोते छोड़कर राजमहल का त्याग करके महल की सीढ़ियाँ उतरने लगे । राजमार्ग पर आगे कदम बढ़ाने लगे! पूरे नगर में, जंगल में लगी आग की भाँति खबर फैल गयी... 'चोर ने विमलयश की धनसंपत्ति लूटकर उसका भी अपहरण कर दिया है। राजा अब अग्निप्रवेश करके अपनी आहुति देने का निर्णय कर बैठे हैं। नगर के बाहर चिता जल उठेगी । '
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