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नयी कला-नया अध्ययन
१०
वर्तमानकालीन जीवन के सुख के विचार नहीं किये जा सकते। आपकी बात सही है।
'तुम्हें पसंद आयी मेरी बात..... सुंदरी को भी तो जँचनी चाहिए... आखिर पढ़ना तो इसे है न, क्यों बेटी ?' राजा ने हँसते-हँसते सुंदरी के सिर पर हाथ रखा ।
‘पिताजी, आप मेरे सुख के लिए, मेरे हित के लिए, कितना कुछ करते हैं? आपके उपकारों का बदला तो मैं इस भव में चुकाने से रही ! आप और मेरी यह माँ-दोनों जैसे मेरे सुख के लिए जीते हैं। मुझ पर दुःख का साया तक न गिरे, इसके लिए कितनी चिंता करते हैं? पिताजी, मैं जरूर साध्वीजी के पास धर्मबोध प्राप्त करूँगी। मैं तलाश करवाती हूँ कि नगर में ऐसी कोई साध्वीजी है या नहीं ?'
'बेटी, तू अमरकुमार से ही पूछ लेना न! उसकी माँ धनवती को तो मालूम होगा ही। यदि गाँव में साधु या साध्वीजी होते हैं तो वो उनको वंदन किये बगैर पानी तक नहीं पीती । '
माँ के मुँह से अमरकुमार का नाम सुनकर सुरसुंदरी पुलकित हो उठी। राजा ने अमरकुमार का नाम सुनते ही रानी से कहा : 'हां, अभी पंडितजी भी अमरकुमार की बहुत तारीफ़ कर रहे थे, बेटी, अमरकुमार तुम्हारी पाठशाला में श्रेष्ठ मेधावी विद्यार्थी है, क्यों?'
‘हाँ, पिताजी, पंडितजी की अनुपस्थिति में वह ही सबको पढ़ाता है। उसकी ग्रहणशक्ति और समझाने का ढंग गजब का है। उसका भी अध्ययन अब तो पूरा हो चुका है।'
'बेटी, एक दिन मैं राजसभा में तेरी और उस अमरकुमार की परीक्षा करूँगा। तुम्हारी बुद्धि और तुम्हारे ज्ञान की कसौटी होगी उस समय ।' सुरसुंदरी तो प्रफुल्लित हो उठी, वह मन-ही-मन अमरकुमार से बतियाने लगी थी।
‘अच्छा, तो माँ, मैं धनावह सेठ के वहां जाकर साध्वीजी के बारे में तलाश कर लूँगी। सुरसुंदरी त्वरा से रानी के खंड़ में से निकल गयी।
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सुरसुंदरी ने सुंदर वस्त्र और अंलकार पहने। रथ में बैठकर वह श्रेष्ठी धनावह की हवेली पर पहुँची । हवेली के झरोके में खड़े अमरकुमार ने
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