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प्रीत न करियो कोय
१९६ ___ 'पर यह बात तो... मैं जिस दिन यहाँ आई थी... उस दिन भी कहा था
न?'
___ परंतु हमने 'कुछ दिन' का अर्थ ऐसा नहीं समझा था... अभी तो कुछ समय ही बीता है। 'कुछ दिन का अर्थ और छह महिना और कर लो न!'
सुरसुंदरी ने माहौल की घूटन को हल्का करने की कोशिश की। रानियों का रूदन कम हुआ। 'यानी तुम सचमुच और छह महिने रहोगी न?' 'दूसरी रानी रत्नप्रभा ने आँसू-भरी खुशी के स्वर में पूछा : 'तो क्या आज ही चली जाऊँगी क्या? अरे... मेरी इन प्यारी भाभियों को छोड़कर जाने को दिल ही नहीं करता है। जी करता है... यहीं रह जाऊँ... ससुराल जाना ही नहीं है।'
'नहीं, दीदी, नहीं... ससुराल तो जाना ही चाहिए | यह तो तुम्हारे भाई ने हमसे कहा कि 'बहन अब कुछ ही दिन रहनेवाली है... जितना प्यार-दुलार करना हो कर लेना। इसलिए हमारे तो प्राण सुख गये।' तीसरी रानी विद्युतप्रभा बोली। __ 'दीदी... देखो, हम तो तुम्हारे भैया से कुछ नहीं कह सकते। वे जो करते होंगे, वह उचित ही होगा। हमें उन पर पूरा भरोसा है, पर दीदी... तुम उनसे कहना कि वे जल्दी ना करे। कहोगी ना? कितनी प्यारी दीदी हो तुम!!! 'मैं तो यहाँ से जाने का नाम भी लेनेवाली नहीं। जाए मेरी बला! 'नहीं बाबा! ऐसा कैसे हो सकता है? ससुराल तो जाना ही होता है। औरत तो अपने ससुराल में ही शोभा देती है... यह तो भला हमारा लगाव तुमसे इतना ज्यादा हो गया है कि तुम्हारे अलगाव की कल्पना भी दुःखीदुःखी कर डालती है हमें! तुम्हारे बिना एक पल भी जीना गवारा नहीं होगा।'
रविप्रभा बोल उठी : 'भाभी, मैं भी तुम्हारी जुदाई की कल्पना से दुःखी हूँ, पर इस संसार में कोई भी मिलन शाश्वत कहाँ है? संयोग के बाद वियोग तो आता ही है | यों सोचकर अपने मन को मनाने की कोशिश करती हूँ। इस जीवन में तुम्हें कभी नहीं भूला पाएँगे हम।'
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