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प्रीत न करियो कोय
'तुम्हारे भाई देखो न... एक तरफ तुम्हें छोड़ आने की बात कर रहे हैं और दुसरी तरफ खुद कितने रो रहे हैं?' हमें बात करते-करते तो...' चारों रानियाँ फिर रो दीं। सुरसुंदरी भी सिसकने लगी। ____ हमें यही चिंता हो रही है कि वे तुम्हे छोड़कर आने के बाद रोया ही
करेंगे... उनका दिल मानेगा या नहीं। उनका दुःख हम कैसे तो देख पाएँगे?' पूरा कमरा उदासी से भर उठा।
आश्वासन का कोई मतलब नहीं था। यथार्थता को स्वीकारे बगैर कहाँ कोई चारा था?
स्नेह-भरे... प्रेम से पागल हुए दिल में... वेदना... दुःख पीड़ा... विषाद... हँसी लिखे होते हैं | स्नेह, संगति चाहता है... और संगति होती भी है तो पल दो पल के लिए! वियोग की चट्टानों पर सर पटक-पटककर स्नेह आँसू बहाता है। प्रीत की पीड़ा को कौन जान पाता है?
स्नेह के साथ बिछोह रहता ही है... लगाव के समानांतर ही अलगाव चलता है। इसलिए तो सदियों से कहते हैं सत्पुरूष : प्रीत न करियो कोय ।'
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