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प्रीत न करियो कोय
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[ २९. प्रीत न करियो कोय!
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'भाई... क्यों इतना सारा विषाद चेहरे पर? क्यों इतनी ढेर सारी गमगीनी और उदासी?' 'भावी के विचारों की आँधी घिर आयी मनोजगत् में!'
'ओफ! ओफ... ऐसे कौन-से विचारों की आँधी ने तुम्हें उलझा दिया? यदि मुझे कहने में ऐतराज न हो...'
'तुझसे क्या छिपा है... बहन?'
'तो फिर कह दो ना! विचारों को व्यक्त कर देने से दिल हल्का हो जाता है। भावनाओं को अभिव्यक्त करने से मन शांत हो जाता है।' ___ 'तेरे विरह के विचारों में खोया गया... अब तुझे बेनातट नगर भी तो पहुँचाना है ना?'
चारों रानियाँ भाई-बहन को बतियाते छोड़कर अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गयीं। हालांकि, रत्नजटी की उदासी ने चारों रानियों को अस्वस्थ बना दिया था। रत्नजटी की बात सुनकर सुरसुंदरी सोच में डूब गयी। नंदीश्वर द्वीप पर मणिशंख मुनिराज का भविष्यकथन उसके स्मृतिपटल पर उभर आया। उसने रत्नजटी की ओर देखा। रत्नजटी की आँखों में पीड़ा का बर्फ पिघलने लगा।
‘पर भाई, मुझे बेनातट जाना ही नहीं है... मैं यहीं पर रहूँगी।'
'ऐसा कैसे हो सकता है? तू मेरे-हमारे सुख-दुःख की चिंता करती है... तो क्या मैं तेरे सुख का विचार नहीं करूँगा? जो भाई अपनी बहन के सुखसौभाग्य का विचार न कर सके, वह अच्छा थोड़े ही होता है?' ___ 'पर भाई... अब मुझे संसार का वैसा कुछ खिंचाव है ही नहीं! मैं अमरकुमार के बगैर जी सकूँगी। भाई, तुम्हें छोड़कर कही नहीं जाऊंगी, बस? तुम्हारी वेदना मैं नहीं देख सकती, मैं तुम्हारे आँसू नहीं सह सकती। मैं यहाँ सुखी हूँ... प्रसन्न हूँ!' ___ 'भाई के घर का सुख और पतिगृह का सुख-दोनों सुख में काफी अंतर है बहन! पतिगृह में दुःख हो फिर भी स्त्री पति के घर पर ही भली लगती है...
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