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प्रीत न करियो कोय
१९२ यह तो मेरे कोई जन्म-जन्मांतर के पुण्य प्रगटे कि तू मुझे बहन के रूप में मिल गयी! तुझे पाकर मैं अपने आपको धन्य समझता हूँ! मैंने तेरे साथ अनहद स्नेह का नाता जोड़ लिया है। सहज रूप से यह स्नेह का बंधन जुड़ गया है। पर यह स्नेह हीं तेरे वियोग की पीड़ा देगा। तेरे बिना इस महल की सुनसानश्मशान से महल की कल्पना ही मेरे दिल को दहला रही है!'
‘पर क्यों अभी से कल्पना कर रहे हो? क्या आज ही मुझे भेज देना है?'
'नहीं... नहीं... अभी तो कुछ दिन रूकना ही है। पर मन भी कितना नादान है। अनजान भविष्य के बारे में सोचे बगैर कहाँ रहता है? भूतकाल की स्मृति एवं भविष्य की कल्पानाएँ करना तो मन का पुराना स्वभाव है।'
'इसलिए तो ज्ञानी पुरूष... पूर्ण ज्ञानी महात्मा कहते हैं कि मन को तत्त्वचिंतन में डूबोये रखो। चिंतन में मन डूबने लगा... डुबकियाँ लगाने लगा, तो फिर अतीत और आनेवाले कल के इर्दगिर्द मन का भटकना अपने आप बंद हो जाएगा।' ___ 'सही बात है तेरी, पर तत्त्वचिंतन या विचार का रास्ता मेरे जैसे राजा के लिए कहाँ इतना सीधा है?'
'क्यों नहीं है सीधा? भगवान ऋषभदेव के पत्र भरत तो चक्रवर्ती सम्राट थे ना? फिर भी वे रोजाना रात्रि में तत्त्वचिंतन के सागर में डूब जाते थे न? आत्मा के एकत्व का चिंतन एवं पर-पदार्थों के अन्यत्व का चिंतन करते थे। इसलिए तो उन्हे दर्पण-प्रासादा में अपने देह का सौंदर्य देखते केवल ज्ञान हो गया था। अंगूलीं पर से अँगूठी निकल पड़ी... अंगूली देखकर चिंतन का अविरत प्रवाह चालू हो उठा। आध्यात्मिक चिंतन प्रारंभ हो गया। आत्मा के अक्षय... अरूप स्वरूप की लीनता जमती चली, भरत केवलज्ञानी हो गये। मेरे प्यारे भैया! तुम भी रोज़ाना आत्मचिंतन कर सकते हो... मैं तो तुम्हें बहुत आग्रह अनुनय कर के कहती हूँ कि तुम रोज़ाना रात की नीरव शांत वेला में शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिंतन, मनन एवं ध्यान करो। तुम्हें अपूर्व आत्मनंदी की अनुभूति होगी और यदि तुमने इतना किया, तो मेरा यहाँ आना भी सार्थक होगा।'
रत्नजटी को सुरसुंदरी की बात अच्छी लगी, वह तन्मय होकर सुन रहा था, फिर भी उसने अपनी मुश्किल बतायी :
'तेरा बताया हुआ रास्ता अच्छा है... पर चंचल, अस्थिर मन क्या उस शुद्ध आत्मस्वरूप के चिंतन में स्थिर हो सकता है?'
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