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प्रीत किये दुख होय
१८९ तू तेरे ही हृदय का विचार करेगा, रत्नजटी! क्या उस बहन को अपना पति याद नहीं आता होगा? तू क्यों भूल जाता है पितामुनि की भविष्यवाणी को! 'तेरा पाप कर्म काफी खतम हो चूका है... सुरसुंदरी, बेनातट नगर में तेरे पति से मिलन होगा।' और रत्नजटी की आँखें सजल हो उठीं!
मुझे बहन के सुख के बारे में सोचना चाहिए। स्त्री के जीवन में बड़े से बड़ा सुख उसका पति होता है...। मुझे अब अल्प दिनों में ही उसे बेनातट नगर पहुँचा देना चाहिए। उसके बिना...
रत्नजटी पलंग में पेड़ से कटी डाली की तरह देर हो गया। फफकफफककर रो पड़ा | उसका मन काफी उद्विग्न हो उठा था। विरह-वियोग की कल्पना से उसका मन पागल हुआ जा रहा था... विचारों की जकड़न और ज्यादा गहरी होती चली...
'मैं उससे कहूँगा... बहन, तेरे पति को लेकर तू वापस यहाँ आ जाना... फिर तू यहीं रहना... मैं अमरकुमार को आधा राज्य दे दूंगा। विद्या शक्तियाँ
दे दूँगा... वह मान जाएगी... फिर बस... कभी वियोग नहीं होगा! हाँ... फिलहाल तो मैं तुझे बेनातट पहुँचा दूंगा... अमरकुमार अवश्य मिलेंगे तुझे । पर पति के मिलने के बाद भाई को भूल तो नहीं जाएगी न? मैं तो तुझे इस जनम में एक पल भी नहीं भूल सकता! तेरे गुणों को याद कर-करके...'
रत्नजटी की आँखें बरबस बरसने लगे। पलकों का किनारा तोड़कर अजस्र आँसू बह निकले । रत्नजटी स्वगत बोलने लगा :
'पर मेरी लाड़ली बहन! मैं तुझे किस जीभ से कहूँ - चल, मैं तुझे बेनातट नगर में छोड़ आता हूँ... नहीं... नहीं... मेरी जीभ के टुकड़े - टुकड़े हो जाएँ... पर मैं तुझसे चलने की... यहाँ से जाने की नहीं कह सकता...!'
ओह! भावुकता और कर्तव्य का यह कैसा करारा संघर्ष जग उठा है मन में? प्रेम तुझे दूर करने की कल्पना भी नहीं करने देता... जबकि कर्तव्य तुझे दूर-दूर ले जाने को मजबूर कर रहा है | स्नेह में मेरा विचार मुख्य है... कर्तव्य में तेरा विचार पहले आता हैं, पर... प्यारी बहन... नहीं... मैं स्वार्थी नहीं बनूँगा... चाहे मेरा हृदय टूट-टूटकर बिखर जाए... पर मैं तेरे सुख का विचार ही पहले करूँगा। तुझे बेनातट नगर पहुँचाऊँगा ही। तू सुखी बन... मेरी लाड़ली बहन... बस... कभी तेरे इस अभागे भाई को याद करना...'
रत्नजटी के रूदन ने महल के पत्थरों को हिला दिया होगा | चौपड़ खेल रही सुरसुंदरी का दिल भारी-भारी होने लगा। उसका मन किसी अव्यक्त
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