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प्रीत किये दुख होय
१८८ सब जैसे चौपड़ के पासों में खो गये हों, वैसा समाँ बँध गया था। अचानक रत्नजटी वहाँ जा पहुँचा। कमरे के दरवाज़े पर ही खड़ा रह गया ठगा-ठगा सा! रानियों ने या सुरसुंदरी ने किसी ने भी रत्नजटी को देखा नहीं, कि उसकी आहट सुनी नहीं! पर रत्नजटी अपलक निहारता रहा सुरसुंदरी को।
रत्नजटी की प्रेम-भरी छाया में और चार-चार रानियों के प्यार भरे सहवास में सुरसुंदरी निर्भय निश्चित होकर जी रही थी। बरसों की भागदौड़ की थकान उतर चुकी थी। शरीर की ग्लानि दूर हो गई थी। दिव्य कांति से पूरी काया दमक रही थी। चेहरे पर चमक निखर रही थी। गदराया हुआ बदन एवं चेहरे पर खिला-खिला लावण्य अप्सरा को भी शरमाए वैसा महक रहा था।
रत्नजटी आज पहली बार सुरसुंदरी के शारीरिक सौंदर्य, रूप-लावण्य के बारे में सोचने लगा था। वह तुरंत नीचे उतरकर अपने कमरे में आ गया। शयनकक्ष के पश्चिमी वातायन के पास जाकर खड़ा रहा। उसका भीतरी मन पुकार रहा था! 'अब बहन को जल्द से जल्द बेनातट नगर में पहुँचा दे... उसी में तेरा और उसका हित है।' ___ 'मैं उसे कैसे पहुंचा दूँ? उसके बिना मैं रह नहीं सकता... उसके बिना मेरा जीवन शुष्क-नीरस एवं वीरान हो जाएगा!'
'यदि नहीं पहुँचाया... और तेरे मन में पाप जग गया... तो? उस धनंजय एवं फानहान की तू नयी आवृत्ति बन गया तो?'
नहीं... नहीं... ऐसा तो कभी नहीं हो सकता! ऐसा यह रत्नजटी किसी भी हालत में नहीं करेगा! मैं एक महान मुनि पिता का पुत्र हूँ... वह मेरी बहन है... प्यारी बहन है... मैं भाई हूँ... वह मेरी बहन ही रहेगी...
'रत्नजटी, छह महिने में एक भी दिन या एक भी बार उसके साथ तुझे एकांत नहीं मिला है, इसलिए तू उसके प्रति भगिनी का भाव रख पाया है... अचानक कभी किसी पाप कर्म का उदय आया... एकांत मिल गया... तब तू अपने आप पर काबू नहीं रख पाया तो? ___ मुझे अपने आप पर पूरा भरोसा है! उस विश्वास को मैं गँवाना नहीं चाहता! एकांत में... मेले में या अकेले में वह मेरी बहन ही रहेगी। उसके लिए मैं भाई ही रहूँगा। मैं उसे यहीं रखूगा... मेरे परिवार के मानसरोवर में वह हंसी बनकर आयी है... उसके बिना मेरा सरोवर सूना-सूना हो जाएगा! क्या रौनक रहेगी फिर मेरे परिवार में?
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