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नयी कला-नया अध्ययन
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[२. नयी कला - नया अध्ययन
सुरसुंदरी ने यौवन की देहरी पर कदम रखे तब तक उसने तरह-तरह की कलाएँ हासिल कर ली थी। उसके कलाचार्य ने आकर राजा रिपुमर्दन से निवेदन किया :
'महाराज, राजकुमारी ने स्त्रियों की चौसठ कलाएँ प्राप्त कर ली। मेरे पास जितना ज्ञान था, जितनी सूझ थी, मैंने सब सुरसुंदरी को दे दिया है। मेरा कार्य अब समाप्त हुआ है।' ___ 'तुम्हारी बात सुनकर मुझे काफी संतोष हुआ है पंडितजी! एक दिन राजसभा में मैं राजकुमारी के ज्ञान और बुद्धि की परीक्षा लूँगा। पर एक बात तो बताइए पंडितजी, आपकी पाठशाला में अन्य भी कोई छात्र-छात्राएँ हैं ऐसे, जिन्होंने राजकुमारी के जितना या उससे भी ज्यादा ज्ञान प्राप्त किया हो, जिनकी बुद्धि काफी कुशाग्र हो!' ।
'हाँ महाराज, मेरी पाठशाला का श्रेष्ठ विद्यार्थी-छात्र है श्रेष्ठी धनावह का इकलौता बेटा अमरकुमार | तर्कशास्त्र और व्याकरण शास्त्र में वह पारंगत बना है। वैद्यकशास्त्र में तो उसने 'धन्वतंरी-सा ज्ञान प्राप्त किया है। धनुर्विद्या में उसका सानी नहीं है कोई । अश्व-परीक्षा और हाथी को नियंत्रित करने की कला भी उसने सिद्ध की है।
'खूब...खूब, पंडितजी। राजसभा में सुरसुंदरी के साथ मैं अमरकुमार के ज्ञान और बुद्धि की भी परख करूगा।' ___'जब आप हुक्म करेंगे तब आयोजन कर दिया जाएगा।' राजा रिपुमर्दन ने कलाचार्य को उत्तम वस्त्र... और अलंकार उपहार-स्वरूप देकर उनका उचित सत्कार किया। पंडित सुबुद्धि ने बिदा ली। राजा रिपुमर्दन मंत्रणा-खंड में से निकलकर रानी रतिसुंदरी के पास आये । सुरसुंदरी अपनी माँ के पास ही बैठी
थी। माँ-बेटी बातें कर रही थी। दोनों ने खड़े होकर राजा के प्रति आदर व्यक्त किया। रिपुमर्दन भद्रासन पर बैठा। रानी और राजकुमारी भी दोनों उचित स्थान पर बैठीं।
'बेटी, तेरे कलाचार्य आये थे। अभी ही वे गये। उनके पास तेरा अध्ययन-शिक्षण पूरा हुआ है... उनका वस्त्रालंकारों से सत्कार करके मैंने उन्हें बिदा किया।
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