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भीतर का शृंगार
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श्रीमती तो सेनापति की बात सुनकर भौंचक्की रह गयी... 'अरे... यह रक्षक है कि स्वयं ही भक्षक उसने सेनापति को काफी समझाया, पर सेनापति ने उसकी एक भी न मानी । आखिर श्रीमती ने उसे रात के दूसरे प्रहर में आने का आमंत्रण दिया ।
वहाँ से श्रीमती राज्य के महामंत्री मतिधन के पास पहुँची। उसने जाकर मंत्री से निवेदन किया : 'महामंत्री, आप मेरी रक्षा करें ... सेनापति मेरा शील लूटना चाहता है... मेरे पति की अनुपस्थिति में आप मुझे बचाईये !'
महामंत्री श्रीमती का रूप ... उसकी जवानी... उसका लावण्य देखकर ठगा-ठगा-सा रह गया... वह स्वंय ही कामांध हो उठा। उसने कहा : 'श्रीमती, सेनापति को तो मैं कल ही हाथी के पैरों तले रूँदवा दूँगा... पर मैं तेरे रूप का प्यासा हूँ... मेरी प्यास बुझानी होगी... बस, एक बार! बोल कब आऊँ मैं तेरे पास?'
श्रीमती पहले तो चक्कर में पड़ गयी... उसने महामंत्री को बहुत समझाया... पर महामंत्री उसके आगे प्रेम की भीख माँगने लगा...। कुछ सोचकर उसने महामंत्री को रात के तीसरे प्रहर में अपनी हवेली में आने को कहा। महामंत्री तो खुशी से नाचने लगा ।
श्रीमती का मन बिलख रहा था... जहाँ सहायता के लिए जाती, वहीं नई मुसीबत उसे घेरने लगती थी ... आखिर वह थक कर राजा के पास जा पहुँची... ‘महाराजा... महामंत्री मेरे पीछे पड़ गया है - वह मेरे घर में आने को कह रहा है... आप उसे रोकिए... मेरी रक्षा करें!'
राजा श्रीपति खुद ही श्रीमती को देखकर पागल हुआ जा रहा था। अच्छा मौका देखकर उसने श्रीमती से कहा :
'तू निश्चंत रहना। महामंत्री को मैं शूली पर चढ़ा दूँगा... पर मैं तेरे रूप का आशिक हुआ हूँ... तू मुझे मिल जा... तू चाहे तो मैं तुझे अपनी रानी बना दूँगा... या फिर एक बार तू मुझे अपनी हवेली में बूला ले...।'
श्रीमती को पल-भर लगा कि उसके पैरों तले से धरती खिसक रही है.... फिर भी मन मसोसकर उसने राजा को समझाने की कोशिश की। पर राजा ने एक न मानी, तब श्रीमती ने कहा : 'ठीक है - आप आज रात को चौथे प्रहर के प्रारंभ में मेरी हवेली में पधारना ।
श्रीमती अपनी हवेली में आयी... उसने मन-ही-मन पुरोहित को, सेनापति
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