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भीतर का शृंगार
१७९ काले प्रसूनस्य जनार्दनस्य, मेघांधकारासु च शर्वरीषु।
मिथ्या न वक्ष्यामि विशाल - नेत्रे! ते प्रत्यया च प्रथमाक्षरेषु ।। __ ओ बड़े नेत्रोंवाली! मेघ के अंधकर से युक्त बारिश की रात में मैं तुझे चाहता हूँ... यह मैं झूठ नहीं कहता! प्रतीति के लिए श्लोक के चारों पंक्तियों में पहले अक्षर में मैंने 'कामेमि ते' यह कहा है। ___ श्रीमती को मन ही मन संदेह तो था ही... यह श्लोक सुनकर वह पुरोहित की इच्छा भांप गयी... वह स्वयं विदुषी थी... उसने भी श्लोक में ही सांकेतिक प्रत्युत्तर दिया।
नेह लोक सुखं किंचित, छादितस्यांहसा भृशम् ।
मित च जीवित नृणां, तेन धर्मे मतिं कुरू।। 'हे पुरोहित, इस लोक में पाप से अत्यंत आच्छादित व्यक्ति को कुछ भी सुख नहीं होता है... मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है... इसलिए धर्म में बुद्धि रख ।' श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षर के जरिए 'नेच्छामि ते' - मैं तुझे नहीं चाहती हूँ, वैसा जवाब दे दिया। ___ उस दिन तो पुरोहित चला गया... पर उसने अपने मन में निर्णय किया कि किसी भी तरह से श्रीमती को बस में करना । श्रीमती ने भी अपने मन में निर्णय किया कि किसी हालात में पुरोहित के प्रभाव में नहीं आऊँगी।
दूसरे दिन तो पुरोहित बेशरम होकर श्रीमती के समक्ष लार टपकने लगा... श्रीमती ने उसे खूब समझाया... पर वह तो श्रीमती के पैरों में गिरकर भोग-प्रार्थना करने लगा... श्रीमती ने आखिर अपने मन में एक आयोजन कर लिया... और उससे कहा :
'आज रात को पहले प्रहर आना।'
पुरोहित तो नाच उठा। वह खुश होकर अपने घर पर गया। श्रीमती ने श्रृंगार किया और नगर के सेनापति चंद्रधवल के पास पहुँची। सेनापति से कहा : मेरे पति विदेश गये हुए हैं... मेरे पति का मित्र सुरदत्त मुझ पर मोहित होकर ज्यादती करने को तैयार हुआ है... तुम मुझे उसके फंदे से बचाओ।'
सेनापति श्रीमती का अद्भुत रूप देखकर उस पर मुग्ध हो उठा। सेनापति ने कहा 'सुंदरी... तू चिंता मत कर! उस पुरोहित के बच्चे से तो मैं निपट लूँगा... पर तू मेरी प्रियतमा बन जा... मैं तुझ पर... तेरे रूप पर मुग्ध हो गया हूँ। बोल... कब आऊँ... मैं तेरी हवेली में?'
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