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भीतर का शृंगार
१७८ 'अरे, श्रृंगार न हो फिर भी केवल रूप पर भी लुब्ध होनेवाले पागलों की कहाँ कमी है इस दुनिया में? फिर श्रृंगार हो उस पर तो विपत्ति आते क्या देर लग सकती है? पति की गैरहाज़िरी का अनुचित लाभ कभी पति के मित्र कहलानेवाले लोग भी उठाते हैं... पति का यदि कोई आश्रयदाता है... मालिक है... तो उसकी निगाहें भी पापी हो सकती हैं। इसके बारे में मुझे एक कहानी याद आ रही है...'
'अरे... कहो... कहो... सुनाओ वह कहानी... पर तुमने कहाँ से सुनी थी।' ___ 'मेरी गुरूमाता साध्वी सुव्रता के पास! मेरा सारा धार्मिक अध्ययन उनके पास ही हुआ!'
'अब तो वह कहानी सुनानी ही होगी।' चारों रानियाँ कहानी सुनने के लिए लालायित हो उठीं। सुरसुंदरी ने कहानी-कथन का प्रारंभ किया। 'वसंतपुर नाम का एक नगर था । उस नगर में एक समृद्ध सेठ रहता था, उसका नाम था श्रीदत्त! श्रीदत्त की पत्नी श्रीमती' शीलवती एवं गुणवती नारी थी।
श्रीदत्त की राजपुरोहित सुरदत्त से धनिष्ट मित्रता थी। दोनों को एक दूसरे पर संपूर्ण भरोसा था । एक दिन श्रीदत्त ने व्यापार के लिए विदेश जाने के लिए सोचा। उसने सुरदत्त से कहा : __'मित्र, मैं विदेश जा रहा हूँ... हालाँकि बहुत जल्दी ही वापस आऊँगा... फिर भी मेरी अनुपस्थिति में तू मेरे घर का ख्याल रखना । श्रीमती को किसी भी तरह की विपत्ति का शिकार न होना पड़े, इसका ध्यान तुझे रखना होगा।'
सुरदत्त ने कहा : 'श्रीदत्त... तू बिलकुल निश्चिंत रहना... बिलकुल फिक्र मत करना। ढेर सारा धन कमाकर वापस जल्दी आ जाना... तेरे घर का पूरा ख्याल मैं करूँग।' श्रीदत्त परदेश चला गया।
सुरदत्त रोज़ाना नियमित रूप से श्रीमती के यहाँ जाने लगा। श्रीमती जो भी कार्य बताती, वह प्रसन्न मन से करता! श्रीमती के पास बैठता... बातें भी करता... यों करते-करते एक दिन वह श्रीमती के रूप पर मुग्ध हो उठा। उसकी चापलूसी बढ़ने लगी... एक दिन उसने सांकेतिक शब्दों में श्रीमती के समक्ष प्रेम की याचना करते हुए निम्न श्लोक पढ़ा :
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