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भीतर का शृंगार
१७७ हैं। चूँकि तुम्हारी आँखों में लज्जा का काजल लगाया हुआ है... स्त्री की आँखों में लज्जा का काजल होना ही चाहिए... वह स्त्री सबको प्यारी लगती है... सब के दिल में बस जाती है... श्रृंगार रचाने का हेतु भी तो दूसरों को अच्छा लगना... दूसरों के दिल में बसना ही होता है न?'
'अरे वाह! कितना प्यारा-प्यारा श्रृंगार बताया है, दीदी, तुमने तो! वाकई मजा आ गया आज तो तुम्हारी बातें सुनकर! मैंने तो अभी तक ऐसी बातें सुनी भी नहीं! सचमुच दीदी! यही सच्चा श्रृंगार है स्त्री का! और अब तुम्हारी ये बातें सुनने के बाद हमें समझ में आ गया कि क्यों तुम शृंगार सजाना पसंद नहीं करती हो। __ 'और... ऐसे अद्भुत गुणों का श्रृंगार तो तुमने सजा ही रखा है... फिर भला इस बाहरी लीपापोती की तुम्हें क्योंकर चाह रहेगी?' दूसरी रानी बोल उठी। __'पर... एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है...' तीसरी स्त्री ने प्रश्न किया।
'कौन-सी बात?' सुरसुंदरी ने पूछा। ‘पति के विरह में स्त्री को बाहरी श्रृंगार क्यों नहीं करना चाहिए?'
यह बात मैं तुम्हे समझाती हूँ... इस दुनिया में शीलवती नारी का यदि कोई सबसे बड़ा दुश्मन है तो वह है उसका रूप! इस दुनिया के अधिकांश पुरूष परस्त्री के शील को लूटने पर उतर आते हैं। अब यदि सौंदर्यवाली स्त्री पति की अनुपस्थिति में श्रृंगार सजाए, तो उसके शील के लिए बड़ा खतरा होगा या नहीं?' ___'मेरे सामने यदि ऐसा कोई लंपट आ जाए तो मैं मार-मार उसका भुरता बना दूँ! तीसरी रानी बोल उठी! ___ 'वह तो बहन तुम्हारे पास विद्याशक्तियाँ हैं... तुम विद्याधर स्त्रीयाँ हो... तुम ऐसे लंपट पुरुष का सामना कर सकती हो... पर जिस स्त्री के पास विद्याशक्ति न हो या इतनी शारीरिक ताकत न हो वह क्या करेगी? उसका क्या होगा?
'यह तुम्हारी बात सही है, दीदी! सावधानी के तौर पर, परपुरूष की आँखों में विकार पैदा करें, ऐसे श्रृंगार नहीं सजाने चाहिए।' रानियों ने सुरसुंदरी की बात को मान लिया।
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