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भीतर का शृंगार
१८१ को, महामंत्री को और राजा को बराबर सबक सिखाने का निर्णय किया । इसके लिए उसने एक सुंदर आयोजन कर लिया।
वह अपनी पड़ोसन के पास गयी और उसे सौ सोना मुहरें देकर कहा : 'बहन... तू मेरा एक काम करेगी?' पड़ोसन ने कहा; 'एक क्या, दो काम कर
दूँगी!
__ 'तो सुन... आज रात को जब चार घड़ी बाकी रहे तब तू आकर मेरी हवेली के दरवाजे खटखटाना... जोर-जोर से रोना... कल्पान्त करना... दरवाज़ा खटखटाकर खुलवाना और मुझसे कहना कि 'ले पढ़ यह पत्र... तेरा पति परदेश में मर गया है।' बस, फिर तू चली जाना । बोल... करेगी न इतना काम? पड़ोसन ने हामी भर ली।
श्रीमती ने घर में से एक बहुत बड़ा पुराना पिटारा खोज निकाला। उस पिटारे में चार बड़े बड़े खाने थे। हर एक खाने का दरवाज़ा अलग-अलग था। पिटारे को परिचारिका के पास से खिसकवाकर अपने शयनकक्ष में रखवा दिया। परिचारिका से कहा : देख, सुन... शाम को पुरोहित यहाँ आएगा... उसका आदर-सत्कार करके मेरे शयनकक्ष में ले आना फिर मैं तुझे जैसे आज्ञा करूँ... वैसे-वैसे काम करती रहना... पहला प्रहर ज्यों-त्यों बीता देना है... इन राक्षसी दरिन्दो को सबक सिखाना ही होगा। तू ज़रा भी घबराना मत!' परिचारिका चतुर थी। श्रीमती की बात उसने बराबर समझ ली।
रात्रि का अंधकार छाने लगा... और पुरोहित आ पहुँचा! दासी ने स्वागत किया। शयनकक्ष में ले आयी। श्रीमती ने सोलह श्रृंगार सजाये थे। आँखो में इशारा करके उसने पुरोहित को पागल-सा बना दिया! पुरोहित लाख सुवर्ण मुद्राओं की क़ीमत के रत्न लेकर आया था। उसने रत्न श्रीमती को सौंप दिये। श्रीमती ने रत्नों को सँभालकर तिजोरी में रख दिये। दासी से कहा : 'पुरोहितजी के शरीर को तेल से मलकर अभ्यंग स्नान करवाना... फिर गर्म पानी से स्नान करवाना... इसके बाद भोजन करवाना... फिर मेरे पास ले आना... बराबर सेवा करना इनकी!'
परिचारिका एक प्रहर तक पुरोहित को पटाती रही... खेलती रही... दूसरा प्रहर प्रारंभ हुआ कि हवेली के दरवाज़े पर दस्तक हुई... किसी ने हवेली का दरवाज़ा खटखटाया। पुरोहितजी घबराये... श्रीमती दरवाज़े तक जाकर वापस आयी।
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