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भीतर का शृंगार
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२७. भीतर का शृंगार sey
सच्चा प्रेम, दिये बगैर नही रहता! वास्तविक-आंतरिक स्नेह, प्रदान किये बगैर नहीं रहता! खुद के पास जो अच्छा हो... उत्तम हो... श्रेष्ठ हो... सुंदर हो... उसका अर्पण करेगा ही वह अपने प्रिय के लिए। __विद्याधर राजा की चारों रानियाँ सुरसुंदरी के ज्ञान एवं गुणों पर मुग्ध हो गयी थीं। सुरसुंदरी का व्यक्तित्व धीरे-धीरे समग्र राजमहल पर छाने लगा था। इतना ही नहीं... नगर में भी सुरसुंदरी के गुणों के गीत गाये जाने लगे थे। उसके आने पर मानों सुरसंगीतपुर नगर धन्य हो उठा था। एक दिन की बात है।
सुरसुंदरी श्री नवकारमंत्र का जाप पूर्ण कर के उठी ही थी कि चारों रानियाँ उसके पास आ पहुंची।
सुरसुंदरी ने प्रेम से सबका स्वागत किया। एक रानी ने कहा : 'दीदी...' 'वाह! क्या संबोधन खोज निकाला है!' सुरसुंदरी खिलखिला उठी। 'क्यों? तुम तो हम सब की बड़ी बहन-सी हो ना?' 'अच्छा बाबा! कहो जो कुछ भी कहना हो!' ___ 'दीदी... आज तो तुम्हारे चेहरे पर कितनी प्रसन्नता छलक रही है... क्या बात है? बहुत खुश नजर आ रही हो?'
'सही बात है तुम्हारी... आज मैं सचमुच बड़ी खुश हूँ... आज मेरा मन पंचपरमेष्ठी भगवंतो के ध्यान में आनंद से भर उठा! मन डूब गया था भगवदध्यान में! जब भी मेरा मन परमेष्ठी के ध्यान में डूब जाता है... मेरा सारा अस्तित्व धन्य हो जाता है!'
'दीदी... हमको भी ध्यान करना सिखाओ ना?' 'ज़रूर... तुम्हें ध्यान सिखाने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी!' 'कब सिखाओगी?' 'अभी... आज ही...!
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