________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७३
भाई का घर
'यह 'कर्म' क्या है?' 'यह एक तरह के जड़ पुद्गल होते हैं। कार्मण जाति के पुद्गल होते हैं।' 'आत्मा के साथ ये बँधते कैसे हैं?'
'अशुद्ध आत्मा के साथ ही इन कर्मों का संबंध होता है... शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से वे कर्म आत्मा में बह आते हैं... उसे 'आश्रव' कहा जाता है।'
'तो जीवात्मा कोई न कोई शुभ या अशुभ प्रवृत्ति तो करता ही रहेगा? फिर तो सतत कर्मबंध होता ही रहेगा न?'
'हाँ... प्रतिक्षण अनंत-अनंत कर्म बँधते हैं...' ‘फिर जीवात्मा की मुक्ति कब हो?' 'नये कर्म बँधे नहीं... और पुराने बँधे हुए कर्मों को नष्ट कर दे।'
'क्या आत्मा की ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि वह कोई शुभ-अशुभ प्रवृत्ति करता ही न हो?' 'हाँ... पूर्ण जागृति के वे क्षण होते हैं... शुभ या अशुभ कोई प्रवृत्ति नहीं होती।' 'तब फिर वह करेगा क्या?' "कुछ भी नहीं करेगा, स्वरूप में रमणता| शुद्ध आत्मस्वरूप में रमणता। आत्मगुणों में रमणता।' __'यह तो अद्भुत बात है...' पहली रानी ने कहा। चौथा प्रहर बीत रहा था..., भोजन का समय हो चुका था। 'चलो, नीचे चलें। भोजन का समय हो गया है।' रानी ने कहा।
'तुम रात को नहीं खाती क्या?' ___ बिलकुल नहीं। तुम्हारे भाई एवं हम सभी सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन कर लेते हैं।' 'बहुत बढ़िया, कितना उत्तम परिवार है!'
भाभियों के साथ सुरसुंदरी नीचे आयी। इतने में रत्नजटी भी वहाँ पर आ पहुँचा। सुरसुंदरी की ओर देखकर पूछा : 'बहन, तेरी इन भाभियों ने तुझे आराम भी करने दिया या नहीं?' 'पूरे एक प्रहर तक! सभी ने प्रसन्न मन से भोजन किया।
For Private And Personal Use Only