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भाई का घर
१७२ 'नहीं... बिलकुल नहीं दिखते हैं... पर कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया जा सकता है...। बीज दिखता नहीं है, पर वृक्ष नजर आता है...। वृक्ष को देखकर बीज का अनुमान अपन करते हैं ना? 'बीज के बिना वृक्ष नहीं होता।' इस सिद्धांत को जानने एवं माननेवाला व्यक्ति वृक्ष के आधार पर बीज का अनुमान करता है, इसी तरह संसार के जीवों के सुख-दुःख देखकर, उन सुख-दु:ख के कारणों का अनुमान हो सकता है। एक सुखी... एक दुःखी ऐसी विषमताएँ इस संसार में दिखती ही है।'
‘पर इन विषमताओं के पीछे तो मनुष्य की बेवकूफी... बुद्धिमानी... कार्यदक्षता, आलस... समाज व्यवस्था... राजव्यवस्था वगैरह को भी तो कारण माना जा सकता है ना?'
'ठीक है... एक अपेक्षा से हम यह मान सकते हैं... पर उस मूर्खता का कारण क्या? एक आदमी कार्यदक्ष क्यों? और दूसरा गँवार क्यों? एक व्यक्ति तंदुरुस्त एवं दूसरा बीमार क्यों? एक गरीब एवं एक अमीर क्यों? इन सबके पीछे मूलभूत कारण के रूप में पुण्य-पाप कर्म को मानना ही होगा।'
एक आदमी को दूसरा आदमी मारता है... तो मार खाने का दुःख तो उसे मारनेवाले ने ही दिया न? वहाँ फिर कर्म कारण कैसे बन सकता है?' तीसरी रानी ने पूछा। __'मार खानेवाले के पापकर्म का उदय हुआ इसलिए दूसरे आदमी ने उसको मारा। उस आदमी के पापोदय ने ही मारने की इच्छा पैदा की। मेरे ऐसे पापकर्म का उदय हो तो तुम्हें भी मुझे मारने की इच्छा होगी। तुम उसमें निमित्त हो जाओगी। मैं यदि इस सिद्धांत को जानती होऊँगी तो मुझे तुम्हारे प्रति द्वेष नहीं होगा...
शत्रुता पैदा नहीं होगी।' 'पर मारनेवाले को तो पापकर्म बँधेगा न?'
ज़रूर बँधेगा। मार खानेवाला यदि समता न रखे, गुस्सा... क्रोध या दीनता करे... तो उसे भी नये पापकर्म बंधेगे... समता रखे तो नये पापकर्म नहीं बँधेंगे। और उदित पापकर्मों की निर्जरा हो जाएगी।' __'क्या हो जाएगी? चौथी रानी पूछ बैठी।
'निर्जरा! निर्जरा... यानी नष्ट हो जाना। कर्मों की निर्जरा यानी कर्मों का नाश । दुःख के समय यदि जीवात्मा समता' समाधि-पूर्वक दुखों को सहन कर ले तो उदित हुए पापकर्म की निर्जरा हो जाएगी।'
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