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भीतर का शृंगार
१७५
'नहीं... नहीं... अभी तो हम आपको कुछ सिखाने के लिए आयी है' और चारों रानियाँ एक-दूसरें की तरफ देखती हुई हँस दी ! सुरसुंदरी को कुछ समझ में नहीं आया...!!! वह सभी रानियों के मुँह ताकने लगी। बड़ी रानी ने सुंदरी का हाथ अपनी हथेलियों में कसते हुए कहा :
‘प्यारी-प्यारी दीदी... आज तुम्हें हमारी एक बात माननी होगी!' 'ओफ़... पर तुम्हारी कौन सी बात मैंने नहीं मानी ?'
'अरे... इसलिए तो हम तुम्हारे प्रेम में डूब गयी हैं... आज तो हम एक पक्का इरादा करके आयी हैं... आज हम अपनी ननदजी को सुंदर कपड़ों एवं कीमती आभूषणों से सजाएँगी ! तुम मना मत करना ...! नहीं करोगी ना?'
सुरसुंदरी हँस पड़ी। उसने कहा : ‘ओह, यही बात कहने के लिए इतनी लंबी प्रस्तावना की ?
'और नहीं तो क्या? उस दिन पहले-पहले दिन जब हम तुम्हें सजानेसँवारने लगी, तो तुमने साफ मना कर दिया था!'
'सही कहा तुमने... उस रोज़ मैंने मना किया था, पर अब आज मैं मना नहीं कर सकती ना?'
'क्यों? चारों रानियाँ एक साथ बोल उठीं!'
'तुम्हारे प्यार ने मेरे दिल को जीत लिया है... मैं तुम्हारी किसी बात का इन्कार नहीं कर सकती!'
चारों रानियों की आँखें खुशी के आँसुओं से नम हो उठीं... उनका स्वर गद्गद् हो उठा... सुंरसुंदरी ने कहा :
'तुम मुझे स्नेह का अमृत पान करवा रही हो, वह मैं कभी भी नहीं भूल सकती! मैंने तुम्हें पहले दिन क्यों शृंगार सजाने से रोका था, उसका कारण बताऊँ?'
'हाँ...हाँ जरूर बताओ । '
‘पति के विरह में शृंगार रचाना पसंद नहीं करती और फिर मुझे बाहरी साज-सज्जा का इतना शौक भी नहीं है... परंतु आज मैं मना नहीं करनेवाली, बस !! खुश हो ना?'
'अरे बहुत खुश, दीदी!!!'
चारों रानियाँ झूम उठी। उन्होंने सुरसुंदरी को बढ़िया वस्त्र पहनाये,
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